कुछ तो कारण रहते थे
जो बुजुर्ग हमसे कहते थे
शाम ढल चुकी है
ईधर आ जा
वक्त ठीक नहीं है यह
तू झाड़ू न लगा।
देखा जाल मकड़ी का घर में
रात को तो
उठा लिया मैंने भी
हाथ में झाड़ू को
सोचा
अभी इसको साफ कर देता हूँ
उठा के मकड़ी को
बाहर फैंक देता हूँ।
फिर अचानक वो बात
याद आ गई
गलत है ये सचमुच
वो थे बिल्कुल सही
कहाँ जाएगी मकड़ी यह रात को
बनाने में जाला
उसने भी की है मेहनत तो।
सुबह निकालूँगा बाहर तो
बना लेगी ओर कहीं घर ये
सिर्फ मकड़ी की ही बात नहीं है
ओर भी कई परजीवी निकलते
होंगे बाहर झाड़ू से।
........ मिलाप सिंह भरमौरी
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