Milap Singh Bharmouri

Milap Singh Bharmouri

Thursday, 14 June 2018

ब्रह्माराक्षस

1

यह कौन गिरा रहा है

स्कूल की दिवारों को

झाड़ियां उग आई हैं मैदान में

फटी किताबें बिखरी हैं 

चारो तरफ

यह कौन हिला रहा है पेड़ों को।

यह क्या 

यह सूरज कहां चला गया

क्या इसे अंधेरा निगल गया

रुह कांप गई मेरी 

देख कर यह दृष्य

जीभ रुक गई आवाज दव गई

फिर भी कोशिश की

कौन? कौन है वहां...

किसी अतृप्त आत्मा की अभिव्यक्ति पाई

रौंगटे खड़े कर देने वाली आवाज आई

ब्रह्माराक्षस.......


2


ब्रह्माराक्षस हूं मैं

अब हर गली मौहल्ले में

ब्रह्माराक्षस पैदा होंगे

हर पेड़ पर ब्रह्माराक्षस दिखाई देंगे।।

सुना नाम जब राक्षस का

मति मेरी भरमा गई 
स्थिर सी सांसें हो गई
पैरों में जडता आ गई

कोशिश की भाग जाऊं मैं
गर सोया हूँ जाग जाऊं मैं
अपने हाथ पैर हिला कर देखे
खुद को चांटे लगा कर देखे
पर सब कुछ सच सा लगता था
पल पल सांप सा डंसता था

सफेद साय सा खड़ा अंधेरे में
दूर ब्रह्म राक्षस हंसने लगा 
मुझे चबा जाने की मुद्रा में
खूंखार दांत अपने पीसने लगा

बाज के जैसा अपना पंजा 
मेरी ओर वह करने लगा
देखते ही देखते हाथ उसका
लम्बाई में बढ़ने लगा

अंधेरे के सन्नाटे में
उसकी हंसी बिजली सी चमकती थी
अंत समय की घड़ी मुझे अब
अपनी बहुत नजदीक लगती थी.......

3


जैसे- जैसे उसका पँजा
मेरी ओर बढ़ने लगा
जीभ सूख गई रेगिस्तान सी
मैं ज्यादा से ओर ज्यादा डरने लगा

फिर स्मरण शक्ति पर बल दिया
शायद कोई निकल आये हल नया
भूत भगाने का कोई मन्त्र -शन्त्र 
शायद किसी कक्षा में हो याद किया

घोड़े सी अपनी बुद्धि दौडाई
पहली से आजतक जो की थी पढ़ाई
संस्कृत में शायद हो कोई उपचार
संस्कृत की कक्षाओं पर दृष्टि जमाई

आधे अधूरे संस्कृत के श्लोक
में हकलाती जुबान में बड़बड़ाने लगा
मेरे अधूरे ज्ञान को देख कर
ब्रह्म राक्षस ओर भी मुस्कराने लगा

यह अधूरे मन्त्र न आएंगे काम
होकर रहेगा आज तेरा काम तमाम
नहीं बचेगा आज तू मूर्ख
मेरे पंजे लेकर रहेगें तेरी जान.......


4


मेरे इस व्यवहार से
मन थोड़ा सा उसका विचलित हुआ
अपना ख़ूनी हाथ उसने
मोड़ के अचानक पीछे किया

एक नजर डाली मुझ पर
दूसरी स्कूल की लाइब्रेरी की ओर गई
गया वह ब्राह्म राक्षस उस ओर
हाथों और लातों से दीवारों पर प्रहार किए कई

तोड़ डाली सभी दीवारें
छत उखाड़ फेंकी तिनकों सी
उलट पुलट दी किताबों की अलमारियां
देर लगाई न उसने मिनटों की
 
काँच का टूटना टिनो का टन -टन
मन में जोर से टकराता था
ज्ञान का करता वह राक्षस सत्यनाश
और जोर- जोर से खूंखार हँसता था

जगह -जगह बिखरी थीं  ईंटे
टूटे दरवाजे पड़े थे मलवे के ढेर पर
खिड़कियां हुई थी टुकड़े -टुकड़े
मन कुंठित होता था दृश्य देखकर.......

5

विभिषत दृश्य देख के यह
हृदय में
प्रस्फुटित हुए रुदन स्वर
जब सुनी
आवाज मेरे रोने की उसने
फिर ब्रह्माराक्षस ने देखा ईधर।

तप्त रक्त छोड़ती आँखे
आग की ज्वाला सी
चमक रही थी
मुँह पर चिपकी सूखे खून की पपडी
वक्ष स्थल तक 
लटक रही थी।

वह बढ़ा मेरी ओर
हुआ ओर भी क्रूर
हर कदम पर उसके
सूखी पत्तियां और धूल उड़ने लगी
सांप के फन सी लार टपकाती
जीभ विषैली
मुंह से बाहर निकलने लगी ।

लम्बे -लम्बे अग्र दाँत उसके
चार
होंठो से बाहर निकल रहे थे
मुझे चवा जाने को जिंदा
भूख से जैसे मचल रहे थे।

कड- कड की आवाज कठोर
दाँतो के टकराने से हो रही थी
मेरी हड्डियां चूसने की अनुभूति
रसना उसकी कर रही थी।.........

6


मेरे और उसके बीच
अब बस कुछ कदमों की दूरी थी
अब तक तो कुछ कर न सका था
हर ख्वाहिश अभी अधूरी थी।

पास अंत समय को आता देख
भिखारी वाला बन चुका था भेष
मैं हाथ जोड़ता विनती करता
रहा था उसके आगे माथा टेक।

जब पशुता सिर पर चढ़ जाती है
अच्छाई डर कर छुप जाती है
फिर राक्षस से क्या उम्मीद करें
जब इंसान की मति भी मर जाती है।

मेरे रोने का न कोई फर्क पड़ा
ब्रह्मा राक्षस ओर आगे बढ़ा
तत्क्षण मुझे मारने के लिए
अपना हाथ हवा में उसने किया खड़ा

फिर वापिस कर के हाथ को उसने
जोर से मुझको थप्पड़ मारा
शायद अभी हाथ गाल को छू न पाया था
मैं पहले ही मुर्शित होकर निचे गिरा.......

7

न हृदय में धक- धक
न नाडियों में स्पंदन
भूमि पर गिरा हाथ फैलाए
कर रहा जैसे चिर अलिंगन
जैसे मिला हो कोई वर्षों बाद उससे
जिसे चाहता हो मन
देख रहे थे टिमटिमाते हुए तारे
और झांक रहा था गगन।

निस्तब्धता भी अच्छी लग रही थी
उस भयानक डर के बाद
मन करना ही नही चाहता था
बीते खूंखार पलों को याद
ब्रह्मा राक्षस का ख़ौफ 
भूल जाना चाहती थी आँखे
रहना चाहती थीं सदा ही बंद
नासिका ने खोल दिए थे सारे कपाट
पहचानना ही नहीं चाहती थी
अब कोई भी गन्ध।

रेशम का स्पर्श
और सुई की चुभन
भूल चुकी थी त्वचा
शांत मुख सुख अनुभूति कर रहा था
पथरीली मिट्टी पर पड़ा
खाली हो चुका था बर्तन मिट्टी का
टूट चुका था सांसों का घड़ा
निःशब्द मौन हर ओर सुनाई देता था......

8

फिर भी
जहन चल रहा था सारा
और हो रहीं थीं तरकीबें
कैसे कम हो मुसीबतें
जानबूझकर मृत सा 
घोषित कर रहा कर रहा था खुद को
रोक रखी थी साँसे
हिलने नहीं दे रहा था बालों को भी
कि यकीन हो जाए उसको।

फिर अचानक उत्साह सा
भर आया मन में
कितना डरपोक है तू देख
यह सब तो था सपने में
सपने में होने का दिलासा
खुद को देने लगा
फिर से अतिउत्साही होने का
खुद को सबूत देने लगा।

यह सब तो बहुत पहले
शायद सपने में हुआ था
अब तो दृश्य भी भूलने लगे थे
स्मृति पटल पर छाया था धुआँ सा
पर अभी भी नहीं हिला रहा था
किसी भी अंग को
बस दिमाग भाँप रहा था
चेतन और अवचेतन को।........

9

फिर कोशिश की
खुद को परखने की
टटोलने की कि हूँ कहां
यहाँ क्या कर रहा हूँ
निर्जन में 
किस प्रयोजन से आया था यहाँ।

बन्द पड़ी आँखे खोलने की
पूरी कोशिश की
अंगुष्ठ और तर्जनी से
पलकों को उठाकर देखा
पर बस अंधकार
घोर कालिमा दिखाई दे रही थी
पता नही बाहर थी
या मेरे अंदर से निकल रही थी
हर ओर 
चारों दिशाओं में
बस अंधकार
फिर भी सबको स्वीकार

फिर नसिका सुकैड कर
नथुने उपर कर के सूंघना चाहा
शायद पता चले
है यह स्थान कहां
लेकिन एक अजीब दुर्गंध 
जो पहले कभी महसूस नहीं की थी
आने लगी......

10

दुर्गंध इतनी कि
सहन न होती थी
स्वतः ही हाथ नाक पर आ जाता था
पर सांस रोकना भी दुष्कर था
एक हद से ज्यादा
जरा सा हाथ उठाया नाक से तो
फूटने लगता था माथा ।

अजीब उलझन थी
अजीब मंजर बन गया था
सांस लेना भी जैसे 
तीखा सा ख़ंजर बन गया था
जो चीर जाता था
नाक से लेकर फेफड़ों तक की नली
लेकिन अंधेरा था चारों ओर
दिखाई नहीं देती थी
कोई राहत की गली।

दुर्गंध इतनी विषैली थी कि
इसे न रोक पाता था सफेद कपडा
अब दुर्गंध से हो रहा था
प्रत्यक्ष आंदोलित सांसों का झगड़ा
हाथ से नाक दबाए 
चीख निकली
इतनी भयंकर दुर्गन्ध 
कहां से आ रही है?
यह तो रक्त में समा रही है
यह दुर्गंध मुझे मार डालेगी
फेफड़ों को सीने से उखाड़ फेंकेगी.....

11


यह दुर्गंध साधारण नही है
भयंकरता इसकी अकारण नही है
यह ईमान के सड़ने की दुर्गंध है
साथ ही ज्ञान के सड़ने की भी
कोई इलाज नही है इसका
जिसने भी सूंघा है इसको
अंत हुआ है उसका।

कोई नहीं बचेगा
हाइड्रोजन बम से भी घातक है ये
धीरे- धीरे सब ओर फैलेगी
परमाणु श्रृंखला जैसी
नाभकीय संलयन और बिखण्डन की तरह
ये दुर्गंध स्वच्छ हवा का स्थान ले लेगी।

नहीं बचेगा 
अब तू बच ही नहीं सकता
तुमने इस दुर्गंध को सूंघ लिया है
इसका तो एक परमाणु भी घातक है
तुमने तो कितना ही द्रव्य पिया है।

फेंक दे अब इस 
सफेद कपड़े को
जिससे चेहरा छुपा रखा है
अब तेरा चेहरा उजागर हो जायेगा
सब के सामने
पौ फटने से पहले ही
तू धराशायी धड़ाम गिर जायेगा
अब नहीं काम करेगा यह
सफेद नकाब।.....


12

किसकी आवाज है यह?
कौन बोल रहा है?
चारों दिशाओं में
यह किसका स्वर गूंज रहा है
कौन दे रहा है उत्तर मेरे प्रश्नों का
दिखाई तो कोई नहीं देता
केबल स्वर ही गूँज रहे हैं
रहस्य की बन रहीं
आकृतियां अँधरे में लगातार
तिलिस्म के जैसे हजारों दरवाज़े खोल
रहे हैं।

फिर याद आई वो
दुर्गन्ध की बात अचानक
जो कितनी ही
अनजाने में सूंघ ली थी मैंने
उस सघन अँधेरे में शरीर का
निरीक्षण करने लगा अपने।

लेकिन कुछ भी न दिखाई देता था
रोशनी न होने के कारण
जेब में हाथ डालना चाहा
टटोलने के लिए
देखना चाहा
लाइटर को जलाकर
लेकिन हाथ न चल रहा था
जैसे भारी किसी वजन के नीचे दब गया था
या किसी ने बांध दिया था रस्सी से
या पकड़ रखा था किसी दुर्दांत ने।.....

13


हिला ही नहीं पा रहा था हाथ
जैसे हो ही नहीं कन्धे के साथ
तटस्थता हरकत की विचित्र लग रही थी
बस दिमाग चल रहा था
और सब सुन्न था
शून्य

सोये हुए व्यक्ति को जैसे
दवा लिया हो अद्रश्य दबाव ने
छटपटा रहा हो बिस्तर पर जैसे नींद में
पर बड़बड़ा नहीं पा रहा हो
नींद में भी
जुबान चुप तटस्थ 
नियति अंधेरे की नजर देख रही

उस सूंघी हुई दुर्गन्ध का है
शायद यह असर
जो हिला ही नही पा रहा हूँ
अपने हाथ पैर और बूढ़ी कमर
जुबान को चिपका लिया हो
या खींच लिया हो
चुम्बक ने लोहे के टुकड़े की तरह
अब छूटने नहीं दे रहा हो
और पकड़ ऐसी कि
मुकाम तक पहुंचने नहीं दे रहा हो

यह क्या अब तो 
जुबान के होने का एहसास भी
खत्म हो गया है
कब से यह वाचाल गूँगा हो गया है
कब से पता नहीं
शायद दुर्गन्ध सूंघने के बाद।.........

14


हो गई हैं सब इंद्रियां
बिजली के स्विच की तरह
ऑन किया तो संचारित होता है प्रवाह
महसूस करने का
ऑफ किया तो हो जाता है सब जड़
सिर्फ मन घूमता रहता है
ढूंढता रहता है चेतन अवचेतन की हद
और यही हाल है
हृदय में उमड़ रहे आदर्शों का
परिभाषा भी गढ़ते हैं अनुकूल
जब चाहा कह दिया मिट्टी और गर्द
जब चाहा कह दिया गौ धूल
पहले त्वचा का पहना था चोला
पर अब
स्वार्थता हड्डियों में समा चुकी है
जरा सी सुविधा देखते ही
टपक जाती है लार
खड़ा हो जाता है सोया हुआ स्वार्थ
मीठा लगने लगता है खार

जोर से बिजली चमकती है
पर आवाज नहीं आती है
क्षणिक प्रकाश में आंखे
जड़ अपने शरीर को देख पाती हैं
यह क्या सफ़ेद शरीर
नीला- सा पड़ चुका है
और पहले से फूल भी गया है।.......

15


बिजली चमक कर लुप्त हो जाती है
अंधेरे में क्षण भर में
पर कारण खोजने की कितनी ही
छोड़ जाती है चिंताएं मेरे मन में

सोच में डूब जाता हूँ मैं
पाँव से लेकर सिर शिखा तक
तथ्य के अंजाम तक पहुंचने का
प्रयत्न करता हूँ मैं भरसक

ढूंडता हूँ कारण उभर आई
विद्रूपताओं का सुंदर अंगों में
भूल कहां हुई थी जीवन में
कमी तस्वीर में थी या रंगों में

सच झूठ की जाली से छनकर
आत्मचिंतन का सत्य बनकर
वाक्य छनकर निकली बूँद के जैसा
कहता है मेरे सामने तनकर

यह उसी दुर्गन्ध का असर है
जिसे सूंघा था तूने
जाने में अनजाने में
स्पष्ट रूप में या बहाने से
मजबूरी से या लालच से
दुर्बल पर आजमाई ताकत से
यह दुर्गन्ध पीछा नहीं छोड़ेगी
पीछा करेगी लागतार।.......


16


जिंदगी के अंधेरे में
मैं व्यथित चिंता में लीन था
चल रही थी अब तेज हवाएं
लेकिन अब भी सुन शरीर था

समय की करवट को भांप रहा था
होकर बेसुध काल जैसे नाच रहा था
कुचल रहा पैरों से सूखे पत्तों को
हरी टहनियों को हाथों से नोच रहा था

चमक रही थी बिजली घनघोर
झंझा की फुफकारों में
कह रही थी प्रकृति जैसे कोई बात 
अपनी मानो इशारों ही इशारों में

स्थान वही दिखाई दे रहा था
टूटे हुए स्कूल के इर्द गिर्द का परिवेश
कर रहा था तस्वीरें उजागर
कड़कड़ाती हुई तड़ित का आवेश

सपना नहीं है यह हकीकत ही है
मन में फिर से आभास होने लगा
देखकर इस घोर विपत्ति को
मन जोर जोर से रोने लगा

यह कारागार है ब्रह्मा राक्षस की
इस की सलाखें कैसे तोड़ पाऊंगा
क्या मार डालेगा यातना देकर मुझको
या यहीं जड़ पत्थर बन कर रह जाऊँगा......

17


सुन पड़े शरीर को
फिर से हिलाने की कोशिश की
जैसे ही थोडी सी 
अंगों ने मेरे हरकत की

पीड़ा की एक पराकाष्ठा 
महसूस मुझे होने लगी
इस दर्द की असहनीयता से
मति दोबारा से चकराने लगी

पर डर रहा था चीखने से
कि मेरी आवाज़ कहीं न वो सुन ले
रात्रि के अपने भोजन के लिए
कहीं मुझे ही नहीं आज वो चुन ले

आस पास जब देखा तो
चारों ओर सुनसान पड़ा था
ऐसे महसूस हुआ मुझे कि
अब ब्रह्म राक्षस चला गया था

अनुपस्थिति का उसकी 
मैंने फायदा उठाना चाहा
उठाकर जिंदगी का जोखिम
उस स्थान से मैंने भागना चाहा

जैसे ही कदम उठाया तो......

18


जैसे ही कदम उठाया
मन में मेरे एक सवाल आया
इस जीर्ण शीर्ण शरीर को लेकर
जा पाऊंगा मैं कहाँ

सोचने लगा आसान उपाय
जैसे तैसे जान बच जाए
बगल में उगी बड़ी बड़ी झाड़ियों में
छुप जाने को मैंने कदम उठाए

लेकिन यह विचार भी
उसी क्षण मुझे त्यागना पड़ा
झाड़ियों में छुप जाना इस तरह
मुझे कुछ असुरक्षित सा लगा

वह क्षेत्र तो उस ब्रह्मा राक्षस का
जैसे गृह निवास लगता था
चप्पे चप्पे भूमि पर
उसका छाया बसता था

सूखे पत्ते का गिरना भी
रूह को जैसे डरा जाता था
टकराता था जब सूखी घास से
उसके आने की आहट दे जाता था

आवाज़ हवा के झोंके की भी
तलवार के बार सी लगती थी
रह रह कर मुझे डराती थी
रूह में घाव अनेक करती थी।.....


19

सोच विचार किया गहन जब 
एक ओर विचार आया मन में
क्यों न लड़खड़ाते रेंगते
सर्प की तरह
कैसे भी पहुंचा जाए मन्दिर में
जो है गांव के बाहर
टीले पर
जहां बहती है झर झर निर्झर धारा
ठीक मन्दिर के सामने
विशाल शिला पर
गिरता है आवेग से जल
मोती से बिखरते हैं
जल कण
ऊंचाई तक जाते हैं
और गिर कर छोड़ जाते हैं
एहसास अपने होने का
कर जाते हैं पत्थर को गीला
चलता रहता है यह क्रम
दिन रात निरन्तर
तर रहती है शिला कठोर
जल से मिलकर
और निकल जाता है जल
पथरीले पथ पर
कुछ छोर आवाजें करता
छर छर छड़ाप छर करता।........

20

सुना था बड़ों से
उस जल में अदभुत शक्ति है
अमृत सम है उसकी हर बूँद
हर कालिख को धो
उजला करती है
तन का मैल
मन का मैल
बुरे विचार
किये हुए दुर्व्यवहार
बड़े बड़े धोखे के दाग
चाटुकारिता में गाए राग
सब कुछ धुल जाते हैं
बस खुरचना पड़ता है
कुछ देर बाद 
गीला करने के उपरांत
मन के तन को
पापों की स्वीकृति से
पहुंच अनुभूति तक नितांत

बैठ कर उस झरने के नीचे
कुछ देर
ठीक कर चुके हैं
कई असाध्य रोग
दूर दूर से आते हैं अब भी कितने ही लोग।......

21


पहुंच कर उस स्थल पर
उस झरने के पास
छोड़कर स्वामित्व मैं
बनकर अकिंचन दास
प्रकाश पुंज सी गिरती
उस जल की दिव्य झलरों में
जाकर बैठ जाऊंगा
उस दिव्य स्नान के बाद
शायद मेरे अंगों में
फिर से जान आ जाए
मिट जाए यह नीलापन
जहरीला सा
रंग पुराना शायद
फिर वापिस मिल जाए

मैं जरूर पहुंच जाऊंगा
उस झरने के पास
अभी करता हूँ चलने का प्रयास
अगर पैर नहीं देंगे चलने में साथ
तो हाथ फैला कर देखूंगा
परिंदे की तरह 
फड़फड़ा कर देखूंगा
शायद उग आए पंख 
मेरी भुजाओं पर
और उड़ने लगूं आसमान में
फिर कैसे पकड़ पाएगा 
वो ब्रह्म राक्षस मुझे।......

22


उस मन्दिर से सुरक्षित
कोई और जगह नहीं है
पहुँच पाऊँ परछाई तक भी
अंतिम प्रयास यही है
सुना है लोगों से
बहुत प्राचीन है मन्दिर यह
लाखों साल पहले भी
था खड़ा यहीं यह
कितने ही जल तांडव
कितने ही प्रलय हुए
कितनी ही बार उजड़ी धरती
कितने ही विनाश भूकंप हुए
एक ईंट तक न टूटी इसकी
एक पत्थर तक न भंग हुआ
अब तक है वैसी की वैसी आभा
हैरान हूँ कि
कौन सा इसमें रंग हुआ
ऊर्जा के कण निकलते है निरन्तर
इसकी दीवारों से
अमावस्या की रात में
पूर्णिमा सा चाँद
दिखता है जैसे आकाश में
गगन चूमती इसकी पताका
सदमार्ग का अंतिम छोर
छोड़ अधर्म का रास्ता
बुलाती है अपनी ओर ।.....

23


अंदर और बाहर के 
घनघोर अंधेरे में
छठी इन्द्री के माध्यम से
मन्दिर की दिशा का अनुमान लगाया
परिचित सी जगह में
हाथ फैला कर जैसे
बीच बीच बिजली चमक कर
राह दिखाती मंजिल की
हर्षित कर जाती थी
जरूर हार होगी कातिल की
पाकर मन का निर्देश
पांव ने उठना चाहा उस ओर
राह जाती थी जहां से
उस मंदिर की ओर

पर यह क्या?
सब योजनाओं पर
पानी फिर गया था
पांव तो
उस जगह से हिल ही नहीं रहा था
पैर उस जगह 
इतनी मजबूती से जम गया था
जैसे नट और बोल्ट से
कस दिया हो 
कर के पैरों में छेद
और वो बोल्ट पाताल को रहा हो भेद
जहां बैठा है नाग देवता
जिसने उठा रखा है
कहते हैं सारी धरती का भार
अपने फन पर।......


24

असमर्थ थे पांव हिलने में
नहीं जा सकता था कहीं
फिर उपाय सोचने लगा मैं
खड़ा वहीं
निहारने लगा उस दिशा को
जिस ओर वह मन्दिर था
घने अंधेरे में
कुछ प्रकाशमान सा
दिखाई देने लगा
हाँ वही मन्दिर है यह
मुझे लगा
घोर विपत्ति में जैसे
उम्मीद की किरण मिल गई थी
तपते हुए रेगिस्तान में
जैसे कोई कली खिल गई थी
डूबते को जैसे
तिनके का सहारा होता है
जो काम आ जाए मुसीबत में
वही प्यारा होता है
मन में सोच लिया था
बस उस ओर ही देखते रहूँगा
पहुंच चुका हूँ वहीं
यह मानता रहूँगा
विचलित नहीं होने दूंगा
ध्यान को जरा भी
सामने चाहे आ जाए
फिर मेरे कोई भी 
प्रकाश अब ओर भी
चमकने लगा था
करीब पहुंच रहा हूँ मैं
ऐसा मुझे लगने लगा।.....


25

क्षण भर के लिए मन कुछ
सुरक्षित अनुभूति पा रहा था
पर डर भी अब भी
धीरे -धीरे अंदर को खा रहा था
समझ नहीं आता था
कहाँ आकर फंस गया हूँ
यह किस अलंघ्य से
कीचड़ में आकर धँस गया हूँ
जहां महसूस ही नहीं
हो पा रहा अपना वजूद
कोई तो मिले तिनका ही सही
जिसे पकड़ने के लिए 
करूं कुछ तो उछल कूद

फिर अचानक रौशनी का
रूप बदलता है
रौशनी का घेरा
एक गोल आकृति में ढ़लता है
यह क्या यह तो
कोई पहचानी सी वस्तु लगती है
क्या यह सोने की तख्ती है
नहीं नहीं यह कुछ ओर है
लेकिन जो भी है
इस स्याह अंधेरे की
मात्र भोर है।

महाशून्य के परिवेश में
शायद तिनके के भेष में
यही वस्तु कोई राह दिखाएगी
इसी के सहारे यह रात गुजर जाएगी।


26

यह क्या यह तो एक आईना है
साफ दिखाई दे रहा है
पहचान पा रहा हूँ अंधेरे में
देखो कैसे चमक रहा है
आकर्षित कर रहा है
अपनी ओर
जैसे बांध दी हो किसी ने
कमर के साथ डोर
धीरे -धीरे सम्मोहित
होकर चलता जा रहा हूँ उसके पास
स्वर्णिम किनारे आईने के
बनाए गए हैं किसी धातु से खास।

सन्नाटे गूंज रहे हैं
चारों दिशाओं में
कौन खड़ा है लेकर
आईना हाथों में
अंधेरा इतना घना है
कि पता ही नहीं चल रहा
कैसी जगह है यह
जंगल है, रेगिस्तान है,
पर्वत है या मानव की बस्ती है यह
ऐसे में यह आईना
जैसे चाँद हो गोल
दूर अम्बर पर नही
सामने बीस बाईस गज पर
इसी धरती पर यहीं
कोशिश की ओर पास 
जाने की
लालसा ओर बढ़ी
उस रहस्य को पाने की.......


27

पहुंच गया मैं पास उसके
खुद पहुंचा या पहुंचाया गया
देखना चाहा खुद को उसमें
लेकिन कुछ नजर न आया
यह कैसा आईना है
इसमें तो कुछ भी नजर नहीं आता
क्या मैं ही हूँ नहीं सोच के मन चकराया

नहीं नहीं यह तो आईना है 
कुछ तो नजर आना ही चाहिए
अंधेरे में अपने हाथ चलाने चाहे
खुद को स्पर्श करने के लिए
लेकिन कुछ छू न पाया
मिला ही नहीं कुछ स्पर्श के लिए
हतप्रभ मैं सोच रहा था
क्या हाथ सुन हो गए हैं
या स्पर्श करने के मेरे ही
इन्द्रिय गुण खो गए हैं

जरूर ऐसा ही होगा
मैं तो हूँ , सोच रहा हूँ
देख रहा हूँ उस आईने को
शायद इस रहस्यमयी अंधेरे में
हो गया है कुछ मुझको
आईना तो सच है
सच ही दिखाएगा
कुछ सामने होगा
तो ही नजर आएगा
शायद इस घने अंधेरे में.........

28


मैं खो गया हूँ
इसलिए नजर नहीं आ रहा
इस अंधेरे ने मेरे मुख की, तन की
दीप्ति हर ली है
अब मैं नजर नहीं आऊंगा
इस सुनसान अंधेरे में खो जाऊँगा
लेकिन फिर माथा ठनका
अगर अंधेरा इतना घना है 
इतने सघन काले कणों से बना है
तो यह आईना कैसे नजर आ रहा है

क्या यह आईना
मुर्दों की हड्डियों के फास्फोरस से बना है
या रेडियम से निर्मित किया गया है
लेकिन फिर इसे चमकने के लिए
रौशनी कहाँ है
रौशनी का कोई स्रोत 
नजर नहीं आता
फिर यह रहस्य क्या है
कहीं यह वस्तु
एक विशाल जुगनू तो नहीं
या दूसरे ग्रह की तो नहीं
फिर याद आया
यह आईना पहले मन्दिर से
निकली रौशनी थी
यह भी सम्भव है
मेरे अनुमान में ही कुछ कमी थी
यह आईना ही था
और मैं इसे रौशनी समझ बैठा था......

29

दूर से धोखा लग जाना सम्भव है
गलती के बाद सीखना अनुभव है
लेकिन फिर देखता हूँ इसमें
शायद कुछ नजर आ जाए
इस अंधकार से मुक्ति का
कोई हल निकल आये
यह क्या इसमें तो कुछ
ओर ही नजर आ रहा है
यह तो कोई चलचित्र बना रहा है
कोई फ़िल्म चल रही है इसमें
मूक बिना किसी आवाज के
इस सुनसान जगह पर
कौन छोड़ गया चला कर इस सक्रीन को
आईना नहीं है यह

यह तो एक टी. वी. लग रहा है
विद्युत की सहायता से
शायद चल रहा है
पर नहीं इस आकृति का
इस जैसा कोई टी. वी. नहीं देखा है
देखने में बिल्कुल यह आईना लग रहा है
चलो जो भी है
इसको सही से देखता हूँ
इसमें आखिर यह दिखाई
क्या दे रहा है
कोई अनजान- सा दृश्य
दिखाई दे रहा है इसमें
वाह! कितनी हरियाली है
चारों ओर
सुनाई नहीं देता कुछ भी
लेकिन बज रहे हैं ढोल......

30

बड़े- बड़े खेत
एक तरफ फसलें लहराती
एक तरफ परती- भूमि
क्षमता से अधिक दोहन जैसे
बेमौसम में मक्के की फसलें
खेतों में भरा पानी
दूर-दूर तक फैला
लग रहा था किसी बड़ी झील जैसा
नहीं यह झील नहीं है
यह पानी बारिश का भी नहीं है
धूल उड़ाती राहें
कैसे हो सकती थी
नहीं यहां कोई बारिश नहीं हुई थी

आगे जाकर
पानी की मोटर नजर आई
जो पानी उगल रही थी अपने मुंह से
लगातार
देखते ही  कृत्रिम झील का
रहस्य खुल गया इससे

शायद रातभर 
चला रखी थी किसानों ने मोटरें
इसलिए पानी ही पानी था खेतों में
कुछ आगे चलकर देखा
ट्रेक्टरों से खेतों की मचाई हो रही थी
मानसून अभी आया ही न था
धान की रोपाई हो रही थी
सब कुछ देख पा रहा था मैं
पर खुद को महसूस नहीं
कर पाता था
यह सब कैसे दिखाई दे रहा था
हाँ यह सब तो 
उस आईने में दिखाई देता था........

31


अचानक जिंदाबाद, जिंदाबाद
मुर्दाबाद, मुर्दाबाद
गो बैक,गो बैक
के नारे कानों में गूंजे
इतना आक्रोश, इतनी वेदना
कि कलेजा लगा फटने
मन भयभीत हो गया था
अचानक इतना आक्रोश
कहाँ से फूट पड़ा था
शायद लोगों के सीने में
यह वर्षों से दवा था
भयभीत हो गया मैं
आखिर यह मसला क्या है
कहीं गोली न चल जाये
कहीं लाठीचार्ज न हो जाये
गिर न जाऊं मैं
दब न जाऊं मैं
तीतर- बितर होती भीड़ में
ध्यान से देखने लगा मैं सामने
लेकिन कुछ दिखाई न दिया
आईने में तो चल रहा था
वही परिवेश जो पहले देखा था
शायद इस आईने के 
कनेक्शन में कुछ गड़बड़ आ गई थी
उसकी स्क्रीन पर कुछ विचलित
तरंगे दिखाई दे रही थी
शायद हिल गई थी तार
हवा के तेज झोंके से
पर मुझे तो कुछ भी
ऐसा महसूस नहीं हुआ था मौके पे......


32

या मैं ही महसूस नहीं
कर पा रहा था हवा को
किस तरफ बह रही है
समझ ही नहीं पा रहा था रुख को
चलो जो भी था
सब बेबस था
कुछ बदलाव सम्भव न था
एक इंच हिल पाना भी
असम्भव था

फिर सोचने लगा
उन नारों के बारे में
उस उफनते आक्रोश के बारे में
सुनाई तो दिया था जरूर
पर दिखाई नहीं दिया सामने
सामने तो कुछ ओर ही चल रहा था
वातावरण सब खुश माहौल लग रहा था
फिर वो आवाजें किसकी थी
शायद दवी हुई थीं
जो चींख तो रही थीं
पर सामने सुनने वाला कोई न था
नहीं-नहीं कोई तो था
पर नहीं सुनने का ढोंग करता था
पलट कर बात कोई ओर करता था
जैसे सरोकार ही न हो
उन चीखों से
लग रहे हो उन्हें वे सब पागल से
सारी की सारी भीड़
हजारों- लाखों की.......


33


एक पल के लिए
उस आईने की
निष्पक्षता पर शक होने लगा
फिर सच्चाई की तह तक
जाने का खुद ही प्रयास करने लगा
अचानक निकल गए शब्द मुंह से
यह आईना झूठा है
यह सब झूठ दिखाता है
घटना का दूसरा पहलू भी होता है
लेकिन उसे यह छुपा लेता है
नहीं नहीं मैं नहीं देखूंगा
इस आईने को
अभी बन्द कर लूंगा
मैं अपनी दोनों आंखों को
यह कह कर आंखें बंद करने लगा
पर यह क्या
आंखें तो बन्द हो ही नहीं रही थीं
पलकें वहीं की वहीं थी
हिला ही नहीं पा रहा था
मैं पलकों को
समझ नहीं पा रहा था
इस छल को
यह कैसी समस्या है
कहाँ आकर फंस गया हूँ
पर आया कहाँ
मैं तो यहाँ लाया गया हूँ
खींच कर ,बांध के, घसीट के
यहाँ कुछ भी नहीं होता मेरी मर्जी से
खिलौना है, तिनका है
पर हाथ का सूखा हुआ
मेरा वजूद.......


34

उस आईने को देखना
अंधेरे में मजबूरी थी
ओर कुछ देख ही नहीं सकता था
देखना ही पड़ता था
जो दृश्य उसमें चलता था

मेरी दो आंखें
गोल बांध दी हो जैसे
अनन्त ऊंचाई की रस्सी से
पेंडुलम की तरह
दोलन कर रही हों लगातार
उस आईने के सामने
एक निश्चित दिशा में
पथ पूर्व निर्धारित
पर हाथों से निर्मित
एक यन्त्र एक खिलौना
जो बनाया गया था
अपनी ही सन्तुष्टि के लिये
अपने मनोनुकूल
हाथों की उंगलियों को
पलकों तक ले जाना चाहा
लेकिन उसमें भी असफल रहा

बेबस नारे लगाते लोगों की तरह
मेरी आँख भी डटी रही
उन दृश्यों को देखने के लिये
जो रुचिकर न थे मेरे लिए
दृश्य में एक व्यक्ति दिखाई देता है
उम्र यही कोई पैंतीस- चालीस
का लगता है
वह बहुत उत्सुक दिखाई दे रहा है.....


35

एकदम जेंटलमैन
सफेद रंग की कमीज
ब्रांडेड पैंट
बातों से भी झलक रही थी तमीज
काले रंग की बेल्ट कमर पर
लगभग साढ़े पांच फुट का कद
आकर्षक चेहरा उजला -सा
काली मूछ नुकीली सी
जच रही थी उस पर बेहद
पैरों में काले रंग के जूते
जैसे होते हैं सैनिकों के
या कारखानों के कामगारों के
सेफ़्टी के लिए
शायद वह भी करता था काम
किसी विभाग सरकारी के लिए

ओ हाँ वह दिख रहा है
अपने दोस्तों के साथ
तीन चार दिखाई दे रहे हैं
कर रहे हैं हँसी मजाक में बात
तीन चार नहीं साफ चार नजर आ रहे हैं
चारों लग रहे हैं एक ही उम्र के
बस उनमें एक गंजा ज्यादा है
और दूसरा वजन में भारी है
तीसरे की कुछ बढ़ी दाढ़ी है
पर बाल कोई भी सफेद नहीं है
इतने में आंखों का पेंडुलम
वापिस दिशा में जाता है
सारा दृश्य अब दूर से नजर आता है.....


36

हर जोर जुर्म की टक्कर में
संघर्ष हमारा नारा है
अपना हक लेके रहेंगें
साड़ा एका जिंदाबाद
फिर सुनाई दी
उस आईने में आवाज
लेकिन कुछ स्पष्ट दिखाई नहीं देता था
विचलित सी तरंगों में अस्पष्ट सा
एक विशाल कामगारों का
जनसमूह लगता था
शायद उनका हक छीना जा रहा था
शायद यह रोजी रोटी का मसला था
लेकिन स्पष्ट कुछ भी न था

उनकी आवाजें कानों को
सुन्न कर के निकल गई
लेकिन दृश्य फिर बदल गया
और सामने वही चार पांच
दोस्तों का झुंड आ गया
उसी अंदाज में  वे बातें कर रहे थे
शायद अपनी जिंदगी से
बहुत खुश थे
पीठ पर बैकपैक लिए थे सब वे
शायद कहीं जा रहे थे

सामने कुछ ओर नजर आने लगा है
अब आईना कुछ ओर साफ 
दिखाने लगा है
देख पा रहा हूँ मैं सामने
रेलवे स्टेशन है
लंबी कतार में खड़े मालगाड़ी के वैगन हैं


37

स्टेशन के प्रवेश द्वार पर
सामने तीन चार सीढियां
सामने आगे
तोरण द्वार सा खड़ा मेटल डिटेक्टर
उसके बीच से ही गुजरना होता था सबको
कोई भी नहीं जा सकता था बचकर
तभी किसी गाड़ी के आने की
अनाउंसमेंट होने लगी
सुस्त कदम अब ओर तेज हो गए थे
वे दोस्त भी ओवरब्रिज की ओर बढ़े
अनाउंसमेंट पर कान लगाए
आंखों को सीढ़ियों पर गढ़ाये
चढ़ रहे थे  ओवरब्रिज पर
सफलता की सीढ़ियों की तरह
स्वतः कदम बढ़ रहे थे
गंतव्य प्लेटफॉर्म की तरफ
शायद प्लेटफॉर्म नम्बर तीन था
अभी भी वहां तक पहुंचने के लिए
पन्द्रह बीस सीढ़ियां शेष उतरनी थी
परस्पर वार्तालाप डूब चुकी थी
अथाह शोर के समुन्दर में
अब लहर की सी आवाज सुनाई देती थी
वो भी दव जाती थी गाड़ी के गुजरने से
हजारों की भीड़ बस चली जा रही थी
कुछ सामान लिए कुछ खाली
बस चलने का धर्म निभा रहा था हर कोई
कुछ कदमों से, कुछ घुटनों से
कुछ रेंग कर धर्म निभा रहे थे प्रकृति का
जंगम बनकर , चंचल रखकर खुद को
इस प्रकृति को
नारंगी रंग के
सीमेंट की पट्टियों से बने
बैंच पर जाकर वे बैठ गए
जो अभी एक गाड़ी के जाने से खाली हुए थे।


38

पांच छः मिन्ट ही हुए थे अभी
कि गाड़ी सामने नजर आने लगी
दोस्त सब उठकर
सामान्य श्रेणी की तरफ भागे
जो डिब्बा लगा था गाड़ी में सबसे आगे
थोड़ी ही देर में गाड़ी चल पड़ी
क्योंकि 
स्कूल की छुट्टियां समाप्त हो चुकी थी
इसलिए सबको 
आराम से सीट मिल गई
यूँ तो सामान्य श्रेणी में ऊपर की सीट
सामान रखने के लिए होती है
फिर भी जनता उस पर 
आराम से सोती है
ऊपर की सीट पर 
एक अजीब सा व्यक्ति सोया था
आँखों से तो जागा ही था
कह सकते हैं वह लेटा था
बड़े बड़े बाल थे उसके
उलझे हुए
और बुद्धि से भी वह
उलझा हुआ लगता था
थोड़ी -थोड़ी देर बाद 
वह कुछ बड़बड़ा रहा था
खुद से ही बातें कर रहा था
उसको अनदेखा कर के
वे दोस्त अपनी ही बातों में व्यस्त थे
भाड़ में जाए दुनियादारी
वन्दे अपने में ही मस्त थे।

39

चर्चा हो रही थी उस विषय पर
जो मध्यम वर्ग में आम होती है
रोजी - रोटी के अलावा
उसका भी बोझ ढोती है
हर गली मोहल्ले में
छोटी - छोटी चाय की दुकानों में
बरगद के नीचे चबूतरे पर बैठे
गन्दे न हो जाएं ताश के पत्ते
बिछा देते हैं जमीन पर कुर्ता
उतार कर बनियान के ऊपर से
बीड़ी को सुलगता
चूने को मिलाकर तम्बाकू में
बड़े अभिनय से ताली बजाता
हर इंसान कुछ देर बाद
राजनीति का विश्लेषक बन जाता है
जब भी भारत में चुनाव का मौसम
नजदीक आता है।

अभी तीन महीने बाकि थे
चुनाव की तारीख भी अभी तय नहीं थी
लेकिन हर एक कि जुबान पर
अब केबल राजनीति थी
कौन दल श्रेष्ठ है
किसको जिताना है
किस - किस का होगा सूपड़ा साफ
किसको नेता बनाना है
जिसे अपने घर की खबर नहीं
रसोई में क्या है क्या नहीं
दाल, सब्जी, चावल, आटा
था वह भी राजनीति की बातें करता।

40


आमने -सामने बैठे दोस्त
थे लोकतंत्र की कर रहे बड़ाई
खुशनसीब थे वे सब
जो काम आ गई थी उनकी पढ़ाई
वोट जरूर देना चाहिए
अब चर्चा का विषय बन गया था
वोट न देने वालों को तो
एक ने देशद्रोही तक कह दिया था
इतने में सीट के ऊपर लेटा आदमी
जोर -जोर से हँसने लगा
बड़बड़ाते हुए कुछ
अस्पष्ट- सा वह कहने लगा
जब उसकी ओर देखा दोस्तों ने
तो उसका मुँह छत की तरफ था
अजीब सी मुद्रा थी उसकी
उन्हें लगा
शायद उसके दिमाग में फर्क था
फिर उसको अनदेखा कर वे
अपनी बात आगे बढ़ाने लगे
राष्ट्रवादी सोच से ओतप्रोत वे
अन्य देशों की कमियां गिनाने लगे
चाहे पासपोर्ट नहीं बनबाया था उन्होंने
फिर भी अद्भुत ज्ञान रखते थे
जैसे भारत में न हों वे
और उन देशों में रहते थे
सामाजिक ,आर्थिक सब समस्याएं उनकी
हल सहित सब मालूम थी उनको
अपने देश की तनिक बुराई
बिल्कुल भी न कबूल थी उनको

41

अम्बर में कुछ बादल छा आए थे
काले -काले
समय हो गया था मानसून के आने का
बहुत इंतजार था पहली बारिश का
थोड़ी ही देर में 
तेज तूफान ने दस्तक दी 
सम्भव न था खुली रख पाना
अब खिड़की
अंदर और बाहर की दोनों बन्द कर दी
पर मटमैले इस तूफान ने
गर्मी से कुछ राहत दी।

लेकिन इस तूफान से क्या होता था
सब रखते थे चाहत बारिश की
किसान,मजदूर और मध्यम वर्ग
पशु,पक्षी,कीड़े मकोड़े, जानवर सब
पेड़ पौधे और प्यासी धरती
जो बढ़ा सके अपने गर्भ में
सूख रहे जल स्तर को
आने वाली पीढ़ियां प्यासी न रह जाए
मिटा सके इस भीतर के डर को।

एक समय था जब
पन्द्रह फुट पर पानी निकल आता था
लेकिन अब उसी जगह 
बोर दो सौ फुट तक जाता है
बड़ी जरूरत है बारिश की
रोज देखते है रिपोर्ट
मोबाइल पर मौसम विभाग के अनुमान की
कब बारिश होगी कब बारिश होगी।


42

तूफान आ गया
तूफान आ गया
अचानक सीट के उपर पड़ा
वह अजीब जीव चिल्लाया
खुशी के मारे उसके 
नथुने फूल गए थे
चमक सी आ गई थी उसके चेहरे पे
शायद मिल गया था खजाना गरीबी में
नसीब जाग उठा था जैसे बदनसीबी में।

रेगिस्तान में जलते हुए तन
और प्यासे मन को
मिल गया था बास हिमालय की
किसी शीतल कन्द्रा में
कर दिया था तृप्त जिसने जीवन को
वर्षों के प्यासे को
सूखे कंठ को छू गया था 
पानी झर झर बहता
लकड़ी की नलकी से आता
खुशी ऐसी झलक रही थी
उसकी आंखों में
जैसे यह जल धो देगा
वर्षों से जमी मैल उसके चिथडों से
महक उठेगी देह उसकी
हो जाएगी मानव जैसी
जो दिखती थी सबको दानव जैसी
मिल जाएगा भरपेट खाना
जीवन भर के लिए
नहीं पड़ेगा फका अब
आखरी सांस तक
नहीं तरसेगी आंखे
खुशहाली के लिए।


43

मतैक्य नहीं होता है
हर बिंदु पर
कालिख दिखती है
कुछ लोगों को इंदु पर
शीतल बासी रखता है चाह
गरमी मिले तन को
और ललचाता है कोई मनको
हर पल दिखाई दे
बर्फीली पर्वतमाला 
मिले शीतलता हर पल आंखों को।

हर चेहरा प्रसन्नचित न था
उस उठते तूफान से
वर्षा के आगमन से
भोंहे सिकोड़ रहे थे कुछ लोग
कुदरत की इस हलचल पर
रहने देना चाहते थे वो
सब लोगों को अपने हाल पर।

असहज हो उठते
जब पड़ते थे
धूल के कण उनके
सफेद कपड़ों पर
चेहरे से टकराते थे जब
झोंके धूल भरे
कभी निकाल लेते थे रुमाल जेब से
ढक लेते थे मुंह को कपड़े से
कहीं कीटाणु, विषाणु न पहुंच जाए
नासिका से होते हुए उनके फेफड़ों तक।


44

बाहर उठा तूफान उन्हें
अच्छा नहीं लगता
सेहत के लिए
कपड़ों के लिए
और भविष्य के लिए
वो तो बस यथास्थिति चाहते हैं
बस ऐसे ही चलती रहे जिंदगी
बाहर चाहे कितनी भी फैली रहे
पर पहुंच न पाए उन तक गंदगी
उठते तूफान से।

सड़क के फुटपाथ पर
गठरी बनाकर रखे
गरीब के चिथड़े
जिनको वह समझता है
अपना कीमती सामान
क्यों न समझे
वही चिथड़े तो बनाते हैं
उसके जीवन को आसान
कुछ पल के लिए
रात गुजारने के लिए
मक्खियों और मच्छरों का सुरक्षा कवच
और बसेरा
उसी गठरी से कपड़े का एक
चिथडा अलग हो कर तूफान से
तूफान से ऊर्जा लेकर
उड़कर जा उलझा
एक अमीर के चेहरे से
जो फंस गया था
उस तूफान में गलती से।

45

कपड़े के उस टुकड़े को
पाकर अपने मुंह पर
जिसने छू लिया था
उसके होंठो को
कर गया था अधमरा सा
इतनी ताकत एक चिथड़े में
गरीब के चिथड़े में
गले हुए कपड़े में
जो कर जाए अधमरा
एक हृष्ट पुष्ट को
एक अमीर को
सिर्फ एक चिथडा 
अगर पूरी गठरी
उड़ आती तो क्या होता।

गठरी बन जाती फांसी की रस्सी
फैल जाती इल के पंखों सी
शमशान की राख अकेले में
सुनसान जगह पर
ढक लेती पूरा शरीर उसका
पैरों से सिर तक
लिपट जाती चारों तरफ
बंध जाते हाथ कुछ पल के लिए
तो क्या होता उसका
एक टुकड़े से ही 
कलेजे पर हाथ आ गया
जीभ निकल आई थी
गिठ भर बाहर
उल्ट दिया था खाया सुबह का
सिर्फ एक टुकड़े ने
गरीब के एक चिथड़े ने।

46

घुटनों के बल खड़ा रह गया
फिर न जाने क्या हुआ
समय रुकता नहीं किसी के लिए
ट्रेन भी निकल गई
दरवाजे पर खड़ा वह अद्भुत प्राणी
जोर जोर से हंसने लगा
चिल्लाने लगा
वाह रे गरीब तेरी ताकत
तेरे चिथड़े की ताकत
ट्रेन में बैठे कथित सभ्य लोग
जो कर रहे थे सुविधाओं का भोग
बस यही समझ रहे थे
पागल है
पागल बडबडा रहा है
शायद पागलपन का दौरा उस पर छा रहा है।

अनदेखा कर रहे थे उसको
भीख मांगते हुए हाथ की तरह
कह देते हैं
आदत बिगड़ गई है बस
करने के लिए तो काम कई हैं
मिल जाता है मांगने से
मांगने में दाम थोड़े है
बड़े बड़े बंगले होते हैं
भिखारियों के
किसी ने देखे हैं
भीख मांगना तो व्यवसाय बन गया है
दिन में मांगते हैं
रात को पीते हैं शराब
खाते हैं कबाब
दाल रोटी तो देखते भी नहीं।


47

भीख मांगना खलता है
आंख नाक सारा चेहरा सिकुड़ता है
अभिशाप मानते हैं
देश की सुंदरता के लिए
गलत सन्देश जाता है
विदेशियों में भारत के लिए
गलत नहीं सोचना सम्मान के लिए।

पर नजरअंदाज कैसे करें
बेड़ियों से लिपटी
जन्मकाल से समस्याएं
मजबूरियां हिमालय से ऊंची
जिसके नीचे दब गया जीवन
बन गया चपटा पॉलिथीन से भी पतला
निचुड गया रस
बह गया नदियों से होता
पहुंच गया खारे समुन्द्र में
बन गया इतना तीखा
कि कोई चख भी ले मर जाए
भीख नहीं तो क्या मांगेगा अपाहिज
अनपढ़
जब पढ़े लिखे हाथ पैर वाले
भटक रहे हैं दर दर
बस जी रहे हों जीवन
बस गिन रहे हों सांसे
काट रहे हों दिन
छुप छुप कर पड़ोसियों से
कि कोई पूछ न ले
अभी कहीं काम बना नहीं
और सुना दे दो बातें
दयाभरी
पीठ पीछे से मज़ा लेने के लिए।

48

अब गाड़ी कुछ दूर
निकल चुकी थी
पहाड़ों की ऊंची चोटियों के पैरों में थी
पहाड़ों का आरम्भ
और मैदानों का अंत
दूर से दिखाई दे रहे थे
चांदी से चमकते पर्वत
पर धुंधले से
हवा में भी ठंडक महसूस हो रही थी
अचानक ट्रेन रुकी
शायद खींची थी चैन
आपातकालीन
कोई किलोमीटर पहले
स्टेशन आने से।

सड़क भी नजदीक थी
और शहर भी
शायद कोई शरारती तत्व होगा
जिसने किया था पंगा
अपने पांच मिनट बचाने के लिए
हजारों को असुविधा
यह कैसी मानसिकता
कानून तोड़ने से नहीं हिचकते
रहते हैं अपने तक सिमटे
यह कैसे लोग हैं
अपराधी मनोवृति वाले
यही तो बनते हैं आगे चलकर
अपराधी।

49

उनमें से एक बोला
मैं भी उतार जाता हूं
यहीं से नजदीक रहेगा
सब परमार्थ सब ज्ञानवान
निकल जाता है बन जाता है अनजान इंसान
सुविधा को देखते ही
तर हो जाती है जीभ जैसे
देख शराब की बोतल
घोर शराबी की
कतार में खड़े इंसान की नियत जैसी
जब मिल जाए कौना निकलने का आगे
बेशक घूमना पड़े आवारा सारा दिन
बिन काम
पर मौका न छोड़ेगा
नियम जरूर तोड़ेगा।

हो सकता है रस मिलता हो
चोरी करने में
समय की, धन की और मन की
वरना कौन होता है 
विमुख अपने कर्म से
सृष्टि के नियम से
कालिख पोत देता है पलभर में
अपने ही सद्विचारों पर
पल पल दिए तर्कों के आधारों पर
बस मौका मिला
स्वार्थी बन जाते हैं बड़े बड़े
दूसरों के लिए जीने वाले
कथित रूप से बहुत ही
सुसंस्कृत जिंदगी जीने वाले
वाह रे मौका! वाह रे अवसर!
तू महान है।

50

अचानक अगल बगल में
होने लगी खुसर फुसर
लगता है कोई ट्रेन के नीचे आ गया है
मौत के आगोश में समा गया है
लगता है किसी ने कर ली खुदकुशी 
कहीं वो पागल तो नहीं
नहीं कोई जानवर आ गया होगा
या कोई पागल
पटरी पर सो गया होगा।

पायदान से लोग बाहर 
झांक रहे थे
अपने अपने हिसाब से
मौके को आंक रहे थे
अफवाहों का बाजार गर्म होने लगा
हर कोई मस्तिक्ष पर बोझ ढोने लगा
दूर दस बारह डिब्बों के पीछे
झुरमुट सा दिखाई दे रहा था
कोई कोई ख़बरी प्रवृति वाला
उस ओर जा रहा था
कोई आधे रास्ते से ही
अपने सामान की फिक्र में
वापिस आ रहा था
और मन उपजित
बातें लोगों को बता रहा था
जानवर आ गया नीचे
भिखारी आ गया नीचे
किसी ने खुदकुशी कर ली
या गाड़ी खराब हो गई।

51

दो आंखें जो लटकी हैं रस्सी से
रस्सी का एक सिरा अनन्त ऊंचाई में
अम्बर में
जिसका दोलन अभी भी
चल रहा लगातार
अनथक अविलंब
अपरिवर्तित दिशा में
जैसे देख रही हो संसार को
गहराई से सतर्कता से
कि कुछ छूट न जाए किसी कोण से
आयाम से
एक तिनके की भी गतिविधि
उसकी उड़ान, पहुंच शुरुआत से अंत तक
हर मायने से अर्थ बात का
मस्तिष्क से उत्पन्न विचार का भाव से लेकर
जीभ तक आने के भाव तक
और चेहरे की बनावट
आंखों की दशा और भौंहों की दिशा तक
उस बात का असर
सुनने वाले पर
इतनी सतर्क आंखें कि
हिसाब न रख पाए सुपर कम्प्यूटर भी
सहेज ले सब अपने अंदर
पलपल का पूरा हिसाब
दिखा दे मौके पर सबको अपनी  औकात
कब कालिख आ गई थी
सफेद दिखावे पर
जो दिखता है लोगों को आम
कब कब टूटा था बन्द आंखों का ध्यान।

52

आंखें देख रही हैं
सफेद कमीज़ का रंग
अब धूमिल हो चुका है
अब वो आभा नहीं रही
रौव खास अब आम हो चुका है
सिलवटें पड़ चुकी हैं
जैसे रात गुजारी हो प्लेटफार्म पर
अख़बार के पन्नों पर
और लिया हो सिरहाना
कभी अपनी बांहों का
तो कभी पीठ पर लटके बैग का
संभाल संभाल कर रखा हो
सिर के नीचे
लपेट ली हो तनी
अपनी बांहों की कुण्डी बनाकर
कि नींद आने पर
ले न जाए कोई बैग चुराकर
जिसकी अलग अलग 
जेब में रखे हो रुपए छुपाकर
कि एक जेब से चुरा ले कोई
तो बच जाए दूसरी में कुछ
और पड़ा है खाली टिफन
और एक पानी की बोतल
और एक जोड़ी
धुले कपड़े की
बस इतनी सी है उसकी दौलत
जिसकी चिंता में
आंख खुल जाती है बार बार
और एक अलार्म सुनने का है इंतजार।


53

जो लगा रखा है मोबाईल में
और कस रखा है पैंट की जेब में
और इसके भी चोरी होने का डर
कर गया है उसके जहन में घर
ऐसी गंभीर स्थिति में
रात गुजारी है
और जैसे - तैसे नजदीक सुबह आ गई है।

जा रहा है पूछ पूछ कर पता
बस स्टैंड का
शायद उसे तय करना है
अब सफर बस से
लंबा कई घंटों का लगातार।

थकान से शरीर अब टूट रहा है
पर सुबह का समय है
फिर भी तेज कदमों से चल रहा है
अब डर है कहीं देर न हो जाए
और पहली बस न छूट जाए
उसे लगता है
वह बहुत जरूरी काम पर जा रहा है
शायद उसे कुछ 
स्वर्णिम नजर आ रहा है।

पहुंचना बहुत जरूरी है
वो भी समय पर
नहीं तो व्यर्थ जाएगा प्रयास
यह थकान,यह बेरामी
यह सोच कर ओर तेज
उठने लगते हैं उसके कदम
अभी शहर जगा नहीं है
कोई कोई ही आ रहा है नजर।

54

और जब कोई बस
जाती है
देर तक आवाज गूंजती है कानों में
और दिलासा दे जाती है
शायद इसके बाद
अपनी ही होगी
यहीं मिल जाएगी 
कुछ कदमों के बाद।

कुछ देर बाद ओर आती है
और फिर देखता है
सामने लगे बोर्ड को
जहां लिखा होता है गंतव्य स्थल
ओर होने पर
निराश सा
वापिस खींच लेता है गर्दन
जो बढ़ी थी आगे
बड़ी उम्मीद के साथ
कि अबकी बार तो जरूर
हो जाएगी पिछली निराशा दूर।

कभी देखता है
मोबाईल को निकाल कर
बाहर जेब से
हर पांच दस मिनटों के बाद
देखता है समय को
कि कहां पहुंचा है
कब पहुंचाएगा मुझको
उस बस तक
जो ले जाएगी मंजिल तक।

55

बार - बार समय देखना
कुछ लोगों की फितरत होती है
बिल्कुल वैसे जैसे
निकाल लेते हैं अनायास मोबाईल
अपलक नव पीढ़ी
खोल कर देखती है मैसेज
या इंटरनेट में
जैसे मिलने वाली हो यहीं पर
उन्हें अपनी सफलता की सीढी
कुछ ट्रेन में बैठे बैठे
थोड़ी थोड़ी देर बाद उठाकर देखते हैं
खिड़की का शटर
शायद सौ किलोमीटर पहले ही
उनकी मंजिल आ जाए नजर।

कुछ तो बैठे होते हैं उपरी बर्थ पर
जिन्हे खिड़की से नहीं देता दिखाई
फिर भी बड़ी हिम्मत वाले होते हैं
उपर से उतर कर नीचे आ जाते हैं
और सवारियों से बड़ी तमीज से कहते हैं
जरा पीछे हटना भाई।
और कुछ पांच सात केविन
तय कर पहुंच जाते हैं पायदान तक
कुछ देर तक तकते हैं
दुकानों पर लिखे पते को
स्पष्ट न होने पर
जाहिल कहते हैं उनको
कैसे लोग हैं पूरा पता भी नहीं लिखते
तभी तो इनके सामान नहीं बिकते
कितना इंतजार करना पड़ता है
इनके कारण
जगह की नहीं हो पाती शिनाख्त।

56


रात भर की थकान
अब असर दिखा रही थी
अपने निर्णय पर 
मति अब कुछ कुछ हिचकोले खा रही थी
क्या यह निर्णय सही था
जेब का खर्चा अपना
तकलीफ भी खुद को ही
फायदा किसी ओर का
वो भी अनजान
कौन कहेगा निर्णय सही।

पर अब खुद को
समझ रहा था ओरों से अलग
अब भी जमा खून
उबाल खा रहा था
अभी भी आगे बढ़ने का
साहस आ रहा था
बस अब होंठ सूख चुके थे
और पैर भी थक चुके थे
तभी बस स्टैंड पांच सौ मीटर
लिखा नजर आया
साहस ओर भी बढ़ आया।

वृक्षों के सूखे पत्ते
सड़क पर गिरे थे
जो पैरों के नीचे आने पर
चूर्र -चुर्र -सी आवाज कर रहे थे
अभी बिखरे थे सड़क पर
पगडंडी नहीं बनी थी
अभी सो रही थी दुनिया
सड़क पर नहीं चली थी
बस विरले -विरले कुछ।


57

अब वह बस स्टैंड तक पहुंच चुका था
हौंसला बढ़ गया था
स्फूर्ति - सी आ गई थी शरीर में
जैसे आ जाए कोई ड्राई फ्रूट
दाढ़ के नीचे खीर में
फिर घड़ी को देखा
और सोचने लगा
लगभग आधा सफर तो हो गया
अब बाकि आधा ही रह गया।

पूछने लगा आस - पास के लोगों से
वहां जाने वाली बस कब आयेगी
पूछता रहा एक के बाद दूसरे को
जब तक तसल्ली नहीं हो गई खुद को
लेकिन यह क्या
निर्धारित समय का पता है
फिर भी उठ - उठ कर देख रहा है
हर आने वाली बस को
कहीं यही तो नहीं वो
जिसमें मुझे जाना है।

देखकर फिर वापिस आ जाता
उसी जगह पर उसी सीट पर
यह होशियारी है या कमजोरी
भरोसा ही नहीं किसी पर
पहले  कितने ही लोगों से समय पूछा
संतुष्ट होने के बाद भी
भाग - दौड़
अनपढ़ हो तो माने
तो वह तो सफेद कमीज़ वाला
सफेद कहां अब धूमिल हो चुकी थी।


58

एक घंटे तक इंतजार
कभी बस स्टैंड के अंदर
तो कभी बाहर
गली में अब ढाबे खुल चुके थे
नाश्ता बनाने की तैयारी
चल रही थी हर तरफ
अभी अधिकतर चाय पीने वाले  बैठे थे
कुछ इत्मीनान से तो कुछ जल्दी में
ले रहे थे चुस्कियां
और चवा रहे थे कचौरी
जी चाहा कुछ खा लूं
पर डर था
कहीं सफर में उल्टियां न हों
अगर चकराया सिर तो
मुशिकल हो जाएगी
मन रह गया प्यासा
पानी को देखकर
पेट रह गया भूखा
खाने को देखकर
हर काम हर कोई नहीं के पाता
कभी मजबूरियां होती हैं
कभी दूरियां होती हैं
हर शय गुलाम है किसी की
शायद परिस्थिति की
ढलना पड़ता है
ढालना पड़ता है
परिस्थितियों के साथ
नहीं तो बन नहीं पाती बात


59

बस आ गई
बस आ गई
किसी ने कहा
वहां जाने वाली बस आ गई
अचानक खड़े हो गए कान
खुल गए सब रोम
क्रियाशील हो गई अब इन्द्रियां
सुस्ताए हुए शरीर की
मसला पैसे का था
जो दे चुके थे ढाबे वाले को
चाय और कचौरी के लिए
किसी का गिलास आधा था
किसी ने दो चुस्कियां ली थी।

किसी ने चुस्कियों का
तेज कर दिया अंतराल
कोई निगलने लगा
पहले से ज्यादा माल
जीभ थोड़ी सी जलन महसूस कर रही थी
पर दस रूपए का था सवाल
कमाई की कीमत जानते हैं
कमाने वाले
पता होती है उन्हें
पाई - पाई की कीमत
एक रुपए के लिए
निकलता है कितना पसीना
दस रुपए के लिए आते हैं
कितने छाले।

60

नफा - नुकसान निर्णय 
लेकर जोखिम
कुछ इस ओर कुछ उस ओर
लगा दी क्षमता अनुसार दौड़
ताकि पा सके अच्छा स्थान
बढ़ सके आरामदायक सफर की ओर
अभी बस रुकी भी नहीं थी
शुरू हो गई थी जंग
पहले चढ़ने की।

बस के रुकते - रुकते
पकड़ ली थी कुण्डी किसी ने कस कर
जैसे जीत ली हो मैराथन
छू ली हो लक्ष्य की सीमा
पा ली हो अपनी मंजिल
एक हाथ में बैग
एक हाथ में कुण्डी
अभी सवारियां उतरी भी न थीं।

घेर लिए थे दोनों दरवाजे
चढ़ने वालों ने
भूल गए थे प्रवेश - निकास
शायद देख ही नहीं पाई थी आंखे
या जल्दबाजी ज्यादा थी कि जांचे
या पहले से ही अनुभवी थे
कि प्रवेश - निकास के चक्कर में
सफर करना पड़ेगा खड़े खड़े
लटक कर हैंड रेल से
झूलते हुए या खड़े होकर पायदान पर
कभी अंदर कभी बाहर जाते हुए
कभी हंसते कभी कोसते हुए।


61

जिनकी भुजाओं में होता है दम
आगे निकल जाते हैं
और कमजोर पीछे रह जाते हैं
लेकिन कुछ चालाक होते हैं
वो अलग रास्ता अपनाते हैं
चल गई तो चाल
नहीं चली तो फिर उसी हाल।

अनजान बन जाते हैं
परिस्थिति अनुसार करते हैं बात
और उसी हिसाब से कर लेते हैं समझौता
उन्हें पता रहता है
किससे करनी है कैसी बात
कब किसके छू लेने है पैर
और किसे खींच कर मारनी है लात।

हर देश हर काल में 
मिल जाते हैं ऐसे लोग
कब सामना हो जाए इनसे
कब बन जाए संयोग
ऐसे ही कुछ व्यक्ति थे
जो न तो दरवाजे के पास गए
न ही पीछे रहे
देखी बस की खिड़की खुली 
टटोलने लगे खाली सीट
जो हो खिड़की के साथ ठीक
झोला धर दिया लपक के खिड़की से उस पर
और खाली कर की झट से पीठ
फिर मंडराने लगे इधर - उधर
खुश होने लगे देखकर भीड़
जैसे कब्जा कर लिया हो
किसी सम्पत्ति पर।


62

और पा ली हो विजय
किसी विपत्ति पर

उस धूमिल सफेद कालर ने भी
कुछ अकड़ दिखानी चाही
मन में उछली तसल्ली
और है उसमें भी गजब स्फूर्ति
आगे बढ़ा भीड़ में
पर यह क्या बस बिल्कुल पास
फिर हुआ एहसास
मगर चढ़ने का रास्ता मिल न सका
एक के बाद एक आदमी
उपर जा रहा
पर उसका क्यों नंबर न आए
नजदीक होकर भी 
क्यों वह पीछे रह जाए।

नहीं वो स्फूर्ति नकली थी
जो उसके अंदर उभरी थी
मन मार कर रह गया
अब नौबत आ गई
बस में चढ़ें कैसे
यहां दरवाजे से ही लटके थे कितने
अंदर कितने थे देखे किसने
न चढ़ा जाए न रहा जाए
समझ न आए
वंदा कहां जा
कैसे कटेगा यह बस का सफर हाए!

63

अनजान टांगों के बीच से
अब वह ढूंढने लगा 
रहस्य लक्ष्य का
बड़ी - बड़ी डिंगे अब भी दवी थीं
प्रभाव कोई न था प्रतक्ष्य का
बेशक सुप्त पड़ गई थी
पर मरी नहीं थी ।

वो गौरव गाथा अभी भी थी आशा
शुभ कार्य है जाऊंगा जरूर
नहीं कर पाएगी बाधाएं मजबूर
बाधाएं न हों तो चलने का मजा ही क्या है
फिर यह तजुरबा कहां नया है।

यह तो आम बात है
शायद ज़िन्दगी भर का साथ है
कब छुटकारा होगा इनसे
शायद ही सोचा होगा
सारी भीड़ में किसी ने
रोज आपा - धापी रोज शोरगुल
सब के सब टुन 
बस चलते जाते हैं सोच कर
मैं रोज थोड़े आऊंगा
एक बार पहुंच गया तो
दोबारा पता नहीं
और रोज आने जाने वाला सोचता है
है अपनी नियति यही
जो बदला न जा सके
उसके आदि हो जाओ
वरना किनारे बैठ कर पछताओ
अपनी क्षमताओं पर
अपनी विवशता विवशताओं पर

64

टांगे सटी थीं
एक के साथ एक
एक दूसरे की
शायद खुद को भी पता नहीं था
शरीर का कौन सा अंग कहां था
एक हो चुके थे सब
चिपक कर एक दूसरे से
अनजान था हर कोई जाति - पाती से
वास्ता न था किसी का कोई भी रंग भेद से।

वाह! क्या एकता थी
वाह! क्या सहनशीलता थी
वास्तव में यही समानता थी सबमें
बस निकल आती थी आवाज कभी - कभी
हाय मेरा पैर !
दव गया है किसी के जूते के नीचे
पर पता नहीं चलता था किसके नीचे।

कभी पकड़ लेता एक हाथ से
जो भी सहारा मिलता
कभी पकड़ता दूसरे हाथ से जब थक जाता
कभी दोनों हाथ छोड़ देता
बैलेंस बनाता
बस चलता रहता यही अनुक्रम
क्रियाओं का हरपल
कभी करता कोशिश बैठने की
पर आने लगती आवाजें
नहीं नहीं
यह सम्भव नहीं
इतनी जगह नहीं है कि 
कोई बैठ सके घुटनों के बल
बस लटके रहो लटके रहो
हाथों को उठा कर
बैठना सम्भव नहीं।

65

पीठ पर बैग लटकाए
उसने भी दरवाजे से लटकने के
गुर अपनाए
घातक था फिर भी मन बना लिया
ऐसे ही सही
सफर तो करना है
इसके सिबा चरा भी तो नहीं
आठ हजार का खर्चा
करना सम्भव तो नही
हां अगर मिल जाते चार  - पांच
बांट कर हो जाता सही
आम आदमी है
आम आदमी के लिए
लटक कर जाना ही है सही
जब लटके हुए कुछ समय हो गया
सोचा अभी समय लगेगा
गाड़ी को चलने में
थोड़ा उतर लेता हूं इस लटकन से
आनंद आ जाएगा नीचे
आराम करने में
अभी उतरे थोड़ी देर हुई थी
कंडक्टर आ गया
यह बस छोटी है
इसके बदले बड़ी जाएगी
सुनकर कुछ पल के लिए आराम आ गया
पर जिनको सीट मिल चुकी थी
वो अब भी उठने को तैयार नहीं थे
सीट से चिपके थे।


66

यथा स्थिति अच्छी है
पर जब हो सुखद
मानने को तैयार ही नहीं होता मन
जब हो दुखद
जंग से कम न था यह सफर
कुछ चिपके हुए कुछ उलझे हुए बाल
और सूखे से अधर।

आंखों के गड्ढे अब ओर धंस गए थे
और काला घेरा बढ़ गया था तवे सा
जैसे अतिक्रमण कर रहा 
सरकारी भूमि का
हाशिया बढ़ता जा रहा आगे
और पता ही ना चले
कब ले लिया चपेट में जंगल सारा
बन गए खेत
बन गई इमारतें बड़ी - बड़ी
बन गई दुकानें
पीर की मजार की आड़ में
अजीब गति होती है
अतिक्रमण की बाड़ में ।

फिर वही क्रम शुरु
दूसरी बस के लिए
दौड़ रहे लोग अफरा - तफरी
अपना अपना बोझा लिए
यह कुछ पल की बात नहीं है
यह एक निरंतर प्रक्रिया है
जिसे हर कोई भाली भांति जनता है।

67

इस बार काले घेरे वाले ने
कुछ स्फूर्ति दिखाई
सीट तो हासिल न कर सका
पर पायदान से कुछ फुट आगे
खड़े होने के लिए जगह पाई
ठूंस दिया बैग सीट के नीचे
पर संतोष था
टूटने के लिए कुछ भी न था
थोड़ा सा होशियार मान रहा था उनसे
जो लटके थे पायदान पर
अपने बाहुबल के अभिमान पर
स्थिति को देखकर परिचालक ने
दिया आदेश सिटी बजाकर चलने का
बस के चलने का पल 
बहुत सुखद लगा
बेशक सारे का सारा घटनाक्रम 
दुखद रहा
पर आशा थी पहुंच जाएंगे
अपने - अपने गंतव्य तक
बेशक कैसी भी हो जाए हालत तब तक
जो चढ़ पाए बस में
समझ रहे थे खुद को भाग्यशाली
और जो रह गए ताकते
उनको कमजोर और आलसी
यही तो प्रकृति का नियम है
नहीं नहीं जंगल का
जीवित रहता केबल बलशाली

68

सूरज उग रहा था
बस चल रही थी सर्पिली सड़क पर
मन देखना चाहता था बाहर
पर बोझ बन रहा था अवरोध पलकों पर
जब कठोर बन जाए भीतर का जीवन
बहुत आकर्षित करता है बाहर का संसार
वह भी कोशिश करता बार बार।

देख सके दृश्य बाहर के
अद्भुत दृश्य कुदरत के
छत पर लगी हैंड रेल से
एक हाथ उठाकर
रख दिया बगल की सीट पर
और सरकाने लगा शरीर को
धीरे धीरे उस ओर
की नजर देख पाए बाहर की ओर
खिड़की में से।

सिर को झुकाकर नजरें गड़ाकर
शरीर को उस दिशा में ले जाना
महसूस कर रहा था
जैसे भारी बोरों के नीचे से
निकल रहा हो बाहर कोई दवा हुआ
जैसे कोशिश कर रहा हो बाहर आने की
वर्षों के कर्ज से
जो उसके खाते में चला आ रहा हो पुरखों से
लगातार
बस खाते में नाम बदल रहे
कर्ज का भार फिर भी उतने का उतना
पीढ़ियों दर पीढ़ियों।

69

सुबह के दस बजे थे
सूरज अपनी आभा बिखेर चुका था
सृष्टि का कण- कण दृश्यमान था
सूरज की किरणें आतुर थी
कि पहुंच सके पाताल तक
भेद कर धरती का सीना
सामने रख दे सब
कि कुछ भी छुपा न रह सके
सब की नजर से
देख पाए भली - भांति
हर प्राणी
मूर्ख हो या ज्ञानी
छोटा बड़ा दवा - कुचला
विशाल कद वाला रसूक वाला
पशु - पक्षी जानवर सब
जिसकी भी हो आंख
और देख पाने की इंद्री
सुखमय हो या दुखमय दृश्य
पर हो सामने बिल्कुल साफ
सामने रखे आइने की तरह
शक की कोई गुंजाइश न हो
स्वीकार्य हो सबको
उंगली न उठा सके कोई
प्रकाश की दीप्ति पर
कि अंधेरे में रखा हमको।

बस की गति अब धीमी पड़ चुकी थी
पर चल रही थी निरन्तर
चढ़ रही थी पहाड़ की चोटी की ओर
ललकारती विशालकाय पर्वत को।

70

कैंची नुमा सड़कें
जो काट रही थी घमंड
अहंकार का कि अलंघ्य हूं मैं
जो तोड़ देता था सड़कों को जगह -जगह पर
फैंक कर बड़ी बड़ी चट्टानें 
कि घवरा जाए पथिक हो जाए पीछे
छू न सके ऊंचाई हर बार
करना पड़े इंतजार
महसूस कर सके बाधा
महसूस कर सके पराक्रम
करना पड़े श्रम
ऊंचाई तक पहुंचने के लिए
ऊंचाई तक पहुंच कर
ले सके ठंडी हवा का स्वाद 
देख सके कि ऊंचाई से कैसे
दिखाई देते हैं मैदान
हो सके हैरान ऊंचाई से।

बस में अब भी भीड़ थी
कुछ सवारियां उतरी तो
कुछ नई आ गई
पर गिनती अब भी थी वहीं की वहीं
बस धक्के मुक्की में
जगह खिसक जाती थी
एक दो फुट आगे कभी पीछे
पर बैग अभी भी वहीं पड़ा था
जो रखा था सीट के नीचे
लावारिस सा खाता
लोगों के पैरों की ठोकरें
झेलता सांसारिक दबाव। 


71

धूमिल सफेद कालर
अब मुरझा चुकी थी
खड़े रह पाने के
सभी सम्भव प्रयास आजमा चुकी थी
जल्दी जल्दी समय बीत जाए
काश! घड़ी उतरने की आ जाए।

हालत हो गई थी मरीज की तरह
खुद को इंसान नहीं महसूस कर रहा था
बन गया था चीज की तरह
जैसे ही गाड़ी घुमाव लेती
सारे पुर्जे पेट के भी घूम जाते
पेट से उछल कर
गले की ओर आ जाते।
झट से हाथ रख लेता मुंह पर
कहीं मुंह से बाहर न निकल जाए।

अब अन्य छिद्र भी
हरकत करने लगे थे
जैसे अब वे उसके बस में नहीं थे
हाय! यह स्थिति
हाय! यह विपत्ति
कैसे कटेगा सफर
कब आएगी मंजिल
कई बार तो मन डोल गया
सफर यह भाड में गया
यहीं कहीं उतर जाता हूं
झाड़ियों के पीछे कहीं लेट जाता हूं
इस यातना को कब तक झेलें,
मिट्टी के शरीर से कब तक खेलें।


72

स्थिति ऐसी जैसे
कोई हो मरणासन्न में
खिंच रही शरीर की नसें
आ रही हो जैसे अकड़ तन में
खड़े रह पाना अब असम्भव था
हवा हो चुका था जो भी दम था।

हारे हुए मन से
धीरे - धीरे नीचे बैठ गया
अभी कुछ ही देर हुई थी
बगल में बैठे आदमी का स्टॉप आ गया
बहुत देर से महसूस कर रहा था
वो वेदना उसकी
उठने से पहले उसने
उसे अपनी जगह बैठने को कहा
भूल नहीं पाएगा उसको
जो तरस आ गया उसको
वरना कितने ही खड़े थे बाहुबली
तुरन्त लपक लेते सीट उस वाली।

पर दुनिया में सज्जन भी होते हैं
किसको किस चीज की जरूरत है
खूब समझते हैं
मर चुके शरीर में जैसे
अचानक जान आई थी
बड़ी स्फूर्ति के साथ
उसने ऊपर की ओर अपनी देह उठाई थी
और सरक गया टेढ़ा सा सीट पर
जैसे पा ली थी मंजिल
जीत गया हो इलेक्शन कोई नेता।


72

स्थिति ऐसी जैसे
कोई हो मरणासन्न में
खिंच रही शरीर की नसें
आ रही हो जैसे अकड़ तन में
खड़े रह पाना अब असम्भव था
हवा हो चुका था जो भी दम था।

हारे हुए मन से
धीरे - धीरे नीचे बैठ गया
अभी कुछ ही देर हुई थी
बगल में बैठे आदमी का स्टॉप आ गया
बहुत देर से महसूस कर रहा था
वो वेदना उसकी
उठने से पहले उसने
उसे अपनी जगह बैठने को कहा
भूल नहीं पाएगा उसको
जो तरस आ गया उसको
वरना कितने ही खड़े थे बाहुबली
तुरन्त लपक लेते सीट उस वाली।

पर दुनिया में सज्जन भी होते हैं
किसको किस चीज की जरूरत है
खूब समझते हैं
मर चुके शरीर में जैसे
अचानक जान आई थी
बड़ी स्फूर्ति के साथ
उसने ऊपर की ओर अपनी देह उठाई थी
और सरक गया टेढ़ा सा सीट पर
जैसे पा ली थी मंजिल
जीत गया हो इलेक्शन कोई नेता।


74

अब आधा सफर कट चुका था
आधा अभी बाकी था
लेकिन जोखिम भरा था
पता नहीं कब सड़क पर
आ गिरे पत्थर
बड़ी बड़ी चट्टानें
अवरोध बन जाए मलवा
यह चिंता स्वभाविक थी
क्योंकि यह पहाड़ की जिंदगी थी
रुक रुक कर चलती है
लेकिन लगातार
ठहरती नहीं जड़ सी
बस करना पड़ सकता है इंतजार।

अधमरे शरीर में
अब फिर चिंता घिर आई थी
कहीं देरी न हो जाए
कहीं मैं चूक न जाऊं
यज्ञ समापन हो जाए
और आहुति भी न डाल पाऊं ।

चिंता ने शरीर में 
कुछ ऊर्जा भर दी थी
शरीर के कष्टों को
शायद थोड़ा सा भूल गया था
सोचने की ताकत को
शायद अब ओर आलंबन मिल गया था
शरीर तो दुख रहा था
सोच अब कहीं ओर थी
मन तो सोचता रहता है हर पल
चाहे फर्श पर बैठा हो
या ताजो तख्त पर
सोच रहती ही है जीवित में।


75

दहाड़ते तूफान से
गर्जन कानों में आती
सब कुछ बहा ले जाने को व्याकुल जल
शायद उत्पत्ति स्थल के समीप
अभी घर से निकली नदी
साथ वापिस ले पना मुश्किल 
अगर गिर जाए इसमें कुछ यदि
ऊपर गगन चूमते पर्वत दोनों ओर
माचिस की डिब्बी से दिखाई देते मकान
और ब्लैक बोर्ड पर खींची टेडी मेडी
रेखा से रास्ते
सीढ़ियों के जैसे खेत
आश्चरयचकित हो जाते बाहर के लोग देख।

कितना अलग है यह स्थान
भंग नहीं हो सकता ध्यान
प्रकृति के रूपों का एक रूप
जिसे देखने वाला कर सकता अभिमान
गर्मी के महीने में इतनी ठंडक
पानी गर्म करना पड़ जाए नहाने के लिए
कुदरत का विशाल ए सी
कितने टन का होगा पता नहीं
कितनी ऊर्जा खपत होती होगी
कितना बिल आता होगा
यूंही नहीं कर रहा काम यह अनंत से
किसी ने तो इसे बनाया होगा
बस एक ढाबे के पास रुकी
शायद उनका रोज का स्टॉप होगा यही।


76

दोपहर का भोजन करने के लिए
लोग करने लगे तैयारी
निर्मल हवा का असर था शायद
जो हलका लगने लगा मन भारी
कुछ एक को छोड़कर
सब निकल गए बाहर
कुछ खाने के लिए कुछ पीने के लिए
कुछ लघु शंका के लिए
और कुछ केबल शेल्फी के लिए
खाली- खाली देखा जब तो
वह धूमिल सफेद कालर वाला भी
उतर गया।
खाली था पेट अब तक उसका
देख भोजन मन ललचा गया
भोजन कर कुछ अच्छा लगने लगा
स्फूर्ति आ गई तन में
फिर मन हिलोरें भरने लगा
निकाल कर सेल्फी यन्त्र
वह भी दृश्य संजोने लगा।

भूखे पेट सफर ठीक नहीं
अब उसको रहस्य पता चला 
थोड़ी देर भोजन कर के
सब लोग बस में आ गए
और अपने अगले लक्ष्य की ओर
फिर से चल पड़े
नदी का शोर बहुत था
साथ में बस की घीं, घें 
बातें कर रहे थे लोग
पर साफ नहीं था कुछ।


77

वह धूमिल कालर वाला
किसी से मोबाईल पर बात कर रहा था
शोर गुल ज्यादा था
इसलिए स्पष्ट समझ नहीं आया
बस यह सुनाई दिया अधूरा सा
कितने बजे तक?
पांच बजे तक?
अगर लेट हो गया तो
अगर पूरे पांच बजे पहुंचा तो
अगर पांच बजे लाइन में लग गया तो
काम हो जाएगा
अगर नहीं पहुंचा तो
सफर व्यर्थ जाएगा।

अब फिर से उलझन में था
कभी साथ की सवारियों से पूछता
कभी बस कंडक्टर से
यह बस कितने बजे पहुंचाएगी
रोज कितने बजे पंहुचती है
बार बार समय देखता
गूगल पर दूरी नापता
फिर अपने अनुमान बनाता
समय पर पंहुच जाऊंगा
खुद ही खुद को समझाता
रोमांचक सा सफर यह
उसका बीत गया।

वो विशाल आंख पेंडुलम वाली
देख रही थी
वो खड़ा था लाइन में
ठीक पांच बजे
ले रहा था सेल्फी
विक्ट्री का चिन्ह बनाकर
शायद दिखा रहा था उंगली का निशान
कि किला जीत लिया था उसने
जीत ली थी जंग
हो गया था कामयाब
अपने लक्ष्य को पाने में
अब जुटा था इस कामयाबी को
सोशल मीडिया पर दिखाने में
कि देखो मैंने कर दिखाया
मैं अलग हूं भीड़ से
भीड़ में खड़ा होकर।


78

समय के दो पेंडुलम
गतिमान निरन्तर
जिनमें लटकी हैं दो आंखे बड़ी बड़ी
लोलक की जगह
कर रहे दूरी तय बराबर एक समय में
काटते हुए एक दूसरे को
कैंची की तरह
जिनकी आंखों में है अद्भुत शक्ति
देखने की
पेंडुलम की आंख अब 
पहुंच चुकी है
दूसरे बिंदु पर
जहां पूरी होती है ट्राजेक्टरी
अब देख रही है
एक शमशान का दृश्य
रात इतनी अंधेरी कि
स्याही की तरह
शमशान में धधक रहे अंगारे
जली चिताओं के
एक नहीं सैंकड़ों चिताएं
जो जलाई गई थी
सूरज ढलने से पहले
हवा के झोंके से कभी कभी
जल उठती हैं अधजली लकड़ियां
और उस रौशनी में
दिखाई देते हैं
रेत पर बिखरे सैंकड़ों शव अध सडे
जिन्हे नोच रहे सियार, कुत्ते और अनपहचाने 
जानवर।

79

सुलगती हुई चिताएं
पास में सभा हो रही भूतों की
कुर्सीनुमा पत्थरों पर बैठे
पत्थर जो मिलते हैं
पहाड़ी नदियों के किनारे
जो बह आए हैं दूर तक
नदी की रौद्रता का शिकार होकर
गोलाकार में बैठे भूत
गंभीर मुद्रा में
कुछ मात्र हड्डियों के कंकाल 
कुछ विकृत मुख वाले
सभी गहन चिंतन में
शायद है कोई विषय गम्भीर
जिस पर चल रहा मंथन लगातार शमशान में
तभी एक पीड़ा से कराहता हुआ
भूत आया
उसकी पीड़ा इतनी कि
भूतों का भी कलेजा फटने लगे
व्याकुल भूत कर रहा क्रंदन
यह मेरी उंगली
यही वजह है मेरी पीड़ा की
यहीं से उठ रही है पीड़ा
अरे! कोई तो उपचार कराओ
यह उंगली मुझे आराम नहीं देती
मरने के बाद भी
यही उंगली वजह है मेरे मरने की
मैं इस उंगली से छुटकारा चाहता हूं
कोई तो डाक्टर को बुलाओ
इस शमशान में
क्या कोई डाक्टर नहीं
कोई हकीम नहीं
जो कर सके उपचार उंगली का।


80

अपनी उंगली की हड्डी को उठाकर
भूत ने इशारा किया
पता नहीं क्या मेरे मन में आया था
इसी उंगली पर बड़े चाव से
मैंने काला तेजाब लगवाया था
जिसकी जलन भर गई है
मेरे शरीर के अंदर
धीरे धीरे जहर बन कर फैला
पूरा शरीर काला पड़ गया
शरीर ही नहीं
सारा जीवन काला पड़ गया
रोजगार मिलता था जहां मुझको
वहां ताला लग गया।

मैं अभी इस हड्डी को
तोड़ देता हूं
इस उंगली पर रख कर छेनी
खुद हथौड़े से इसको काट देता हूं
तभी एक अन्य भूत
सफेद कपड़ों में
लकड़ी की नव निर्मित चिता पर 
इस तरह प्रकट हुआ
जैसे देता है भाषण कोई निपुण नेता
खड़े होकर मंच पर
उसने पीड़ित भूत की
हर बात का बड़ी चतुराई से खंडन किया
सारा इल्जाम पीड़ा का उसी पर मढ़ दिया।

नहीं यह उंगली पर लगे तेजाब से नहीं मरा
यह मक्कार है, झूठा है
कामचोर है, समय का चोर है
इसकी पीड़ा उंगली में नहीं
इसकी पीड़ा अंगूठे में है
यह अपनी पीड़ा का 
खुद जिम्मदार है
मैं अभी इसी चिता पर खड़े होकर
एस आई टी के गठन का ऐलान करता हूं
इसकी पीड़ा का मूल कारण
अब एस आई टी खोजेगी।


 


























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