66
यथा स्थिति अच्छी है
पर जब हो सुखद
मानने को तैयार ही नहीं होता मन
जब हो दुखद
जंग से कम न था यह सफर
कुछ चिपके हुए कुछ उलझे हुए बाल
और सूखे से अधर।
आंखों के गड्ढे अब ओर धंस गए थे
और काला घेरा बढ़ गया था तवे सा
जैसे अतिक्रमण कर रहा
सरकारी भूमि का
हाशिया बढ़ता जा रहा आगे
और पता ही ना चले
कब ले लिया चपेट में जंगल सारा
बन गए खेत
बन गई इमारतें बड़ी - बड़ी
बन गई दुकानें
पीर की मजार की आड़ में
अजीब गति होती है
अतिक्रमण की बाड़ में ।
फिर वही क्रम शुरु
दूसरी बस के लिए
दौड़ रहे लोग अफरा - तफरी
अपना अपना बोझा लिए
यह कुछ पल की बात नहीं है
यह एक निरंतर प्रक्रिया है
जिसे हर कोई भाली भांति जनता है।
67
इस बार काले घेरे वाले ने
कुछ स्फूर्ति दिखाई
सीट तो हासिल न कर सका
पर पायदान से कुछ फुट आगे
खड़े होने के लिए जगह पाई
ठूंस दिया बैग सीट के नीचे
पर संतोष था
टूटने के लिए कुछ भी न था
थोड़ा सा होशियार मान रहा था उनसे
जो लटके थे पायदान पर
अपने बाहुबल के अभिमान पर
स्थिति को देखकर परिचालक ने
दिया आदेश सिटी बजाकर चलने का
बस के चलने का पल
बहुत सुखद लगा
बेशक सारे का सारा घटनाक्रम
दुखद रहा
पर आशा थी पहुंच जाएंगे
अपने - अपने गंतव्य तक
बेशक कैसी भी हो जाए हालत तब तक
जो चढ़ पाए बस में
समझ रहे थे खुद को भाग्यशाली
और जो रह गए ताकते
उनको कमजोर और आलसी
यही तो प्रकृति का नियम है
नहीं नहीं जंगल का
जीवित रहता केबल बलशाली
68
सूरज उग रहा था
बस चल रही थी सर्पिली सड़क पर
मन देखना चाहता था बाहर
पर बोझ बन रहा था अवरोध पलकों पर
जब कठोर बन जाए भीतर का जीवन
बहुत आकर्षित करता है बाहर का संसार
वह भी कोशिश करता बार बार।
देख सके दृश्य बाहर के
अद्भुत दृश्य कुदरत के
छत पर लगी हैंड रेल से
एक हाथ उठाकर
रख दिया बगल की सीट पर
और सरकाने लगा शरीर को
धीरे धीरे उस ओर
की नजर देख पाए बाहर की ओर
खिड़की में से।
सिर को झुकाकर नजरें गड़ाकर
शरीर को उस दिशा में ले जाना
महसूस कर रहा था
जैसे भारी बोरों के नीचे से
निकल रहा हो बाहर कोई दवा हुआ
जैसे कोशिश कर रहा हो बाहर आने की
वर्षों के कर्ज से
जो उसके खाते में चला आ रहा हो पुरखों से
लगातार
बस खाते में नाम बदल रहे
कर्ज का भार फिर भी उतने का उतना
पीढ़ियों दर पीढ़ियों।
69
सुबह के दस बजे थे
सूरज अपनी आभा बिखेर चुका था
सृष्टि का कण- कण दृश्यमान था
सूरज की किरणें आतुर थी
कि पहुंच सके पाताल तक
भेद कर धरती का सीना
सामने रख दे सब
कि कुछ भी छुपा न रह सके
सब की नजर से
देख पाए भली - भांति
हर प्राणी
मूर्ख हो या ज्ञानी
छोटा बड़ा दवा - कुचला
विशाल कद वाला रसूक वाला
पशु - पक्षी जानवर सब
जिसकी भी हो आंख
और देख पाने की इंद्री
सुखमय हो या दुखमय दृश्य
पर हो सामने बिल्कुल साफ
सामने रखे आइने की तरह
शक की कोई गुंजाइश न हो
स्वीकार्य हो सबको
उंगली न उठा सके कोई
प्रकाश की दीप्ति पर
कि अंधेरे में रखा हमको।
बस की गति अब धीमी पड़ चुकी थी
पर चल रही थी निरन्तर
चढ़ रही थी पहाड़ की चोटी की ओर
ललकारती विशालकाय पर्वत को।
70
कैंची नुमा सड़कें
जो काट रही थी घमंड
अहंकार का कि अलंघ्य हूं मैं
जो तोड़ देता था सड़कों को जगह -जगह पर
फैंक कर बड़ी बड़ी चट्टानें
कि घवरा जाए पथिक हो जाए पीछे
छू न सके ऊंचाई हर बार
करना पड़े इंतजार
महसूस कर सके बाधा
महसूस कर सके पराक्रम
करना पड़े श्रम
ऊंचाई तक पहुंचने के लिए
ऊंचाई तक पहुंच कर
ले सके ठंडी हवा का स्वाद
देख सके कि ऊंचाई से कैसे
दिखाई देते हैं मैदान
हो सके हैरान ऊंचाई से।
बस में अब भी भीड़ थी
कुछ सवारियां उतरी तो
कुछ नई आ गई
पर गिनती अब भी थी वहीं की वहीं
बस धक्के मुक्की में
जगह खिसक जाती थी
एक दो फुट आगे कभी पीछे
पर बैग अभी भी वहीं पड़ा था
जो रखा था सीट के नीचे
लावारिस सा खाता
लोगों के पैरों की ठोकरें
झेलता सांसारिक दबाव।
71
धूमिल सफेद कालर
अब मुरझा चुकी थी
खड़े रह पाने के
सभी सम्भव प्रयास आजमा चुकी थी
जल्दी जल्दी समय बीत जाए
काश! घड़ी उतरने की आ जाए।
हालत हो गई थी मरीज की तरह
खुद को इंसान नहीं महसूस कर रहा था
बन गया था चीज की तरह
जैसे ही गाड़ी घुमाव लेती
सारे पुर्जे पेट के भी घूम जाते
पेट से उछल कर
गले की ओर आ जाते।
झट से हाथ रख लेता मुंह पर
कहीं मुंह से बाहर न निकल जाए।
अब अन्य छिद्र भी
हरकत करने लगे थे
जैसे अब वे उसके बस में नहीं थे
हाय! यह स्थिति
हाय! यह विपत्ति
कैसे कटेगा सफर
कब आएगी मंजिल
कई बार तो मन डोल गया
सफर यह भाड में गया
यहीं कहीं उतर जाता हूं
झाड़ियों के पीछे कहीं लेट जाता हूं
इस यातना को कब तक झेलें,
मिट्टी के शरीर से कब तक खेलें।
72
स्थिति ऐसी जैसे
कोई हो मरणासन्न में
खिंच रही शरीर की नसें
आ रही हो जैसे अकड़ तन में
खड़े रह पाना अब असम्भव था
हवा हो चुका था जो भी दम था।
हारे हुए मन से
धीरे - धीरे नीचे बैठ गया
अभी कुछ ही देर हुई थी
बगल में बैठे आदमी का स्टॉप आ गया
बहुत देर से महसूस कर रहा था
वो वेदना उसकी
उठने से पहले उसने
उसे अपनी जगह बैठने को कहा
भूल नहीं पाएगा उसको
जो तरस आ गया उसको
वरना कितने ही खड़े थे बाहुबली
तुरन्त लपक लेते सीट उस वाली।
पर दुनिया में सज्जन भी होते हैं
किसको किस चीज की जरूरत है
खूब समझते हैं
मर चुके शरीर में जैसे
अचानक जान आई थी
बड़ी स्फूर्ति के साथ
उसने ऊपर की ओर अपनी देह उठाई थी
और सरक गया टेढ़ा सा सीट पर
जैसे पा ली थी मंजिल
जीत गया हो इलेक्शन कोई नेता।
72
स्थिति ऐसी जैसे
कोई हो मरणासन्न में
खिंच रही शरीर की नसें
आ रही हो जैसे अकड़ तन में
खड़े रह पाना अब असम्भव था
हवा हो चुका था जो भी दम था।
हारे हुए मन से
धीरे - धीरे नीचे बैठ गया
अभी कुछ ही देर हुई थी
बगल में बैठे आदमी का स्टॉप आ गया
बहुत देर से महसूस कर रहा था
वो वेदना उसकी
उठने से पहले उसने
उसे अपनी जगह बैठने को कहा
भूल नहीं पाएगा उसको
जो तरस आ गया उसको
वरना कितने ही खड़े थे बाहुबली
तुरन्त लपक लेते सीट उस वाली।
पर दुनिया में सज्जन भी होते हैं
किसको किस चीज की जरूरत है
खूब समझते हैं
मर चुके शरीर में जैसे
अचानक जान आई थी
बड़ी स्फूर्ति के साथ
उसने ऊपर की ओर अपनी देह उठाई थी
और सरक गया टेढ़ा सा सीट पर
जैसे पा ली थी मंजिल
जीत गया हो इलेक्शन कोई नेता।
74
अब आधा सफर कट चुका था
आधा अभी बाकी था
लेकिन जोखिम भरा था
पता नहीं कब सड़क पर
आ गिरे पत्थर
बड़ी बड़ी चट्टानें
अवरोध बन जाए मलवा
यह चिंता स्वभाविक थी
क्योंकि यह पहाड़ की जिंदगी थी
रुक रुक कर चलती है
लेकिन लगातार
ठहरती नहीं जड़ सी
बस करना पड़ सकता है इंतजार।
अधमरे शरीर में
अब फिर चिंता घिर आई थी
कहीं देरी न हो जाए
कहीं मैं चूक न जाऊं
यज्ञ समापन हो जाए
और आहुति भी न डाल पाऊं ।
चिंता ने शरीर में
कुछ ऊर्जा भर दी थी
शरीर के कष्टों को
शायद थोड़ा सा भूल गया था
सोचने की ताकत को
शायद अब ओर आलंबन मिल गया था
शरीर तो दुख रहा था
सोच अब कहीं ओर थी
मन तो सोचता रहता है हर पल
चाहे फर्श पर बैठा हो
या ताजो तख्त पर
सोच रहती ही है जीवित में।
75
दहाड़ते तूफान से
गर्जन कानों में आती
सब कुछ बहा ले जाने को व्याकुल जल
शायद उत्पत्ति स्थल के समीप
अभी घर से निकली नदी
साथ वापिस ले पना मुश्किल
अगर गिर जाए इसमें कुछ यदि
ऊपर गगन चूमते पर्वत दोनों ओर
माचिस की डिब्बी से दिखाई देते मकान
और ब्लैक बोर्ड पर खींची टेडी मेडी
रेखा से रास्ते
सीढ़ियों के जैसे खेत
आश्चरयचकित हो जाते बाहर के लोग देख।
कितना अलग है यह स्थान
भंग नहीं हो सकता ध्यान
प्रकृति के रूपों का एक रूप
जिसे देखने वाला कर सकता अभिमान
गर्मी के महीने में इतनी ठंडक
पानी गर्म करना पड़ जाए नहाने के लिए
कुदरत का विशाल ए सी
कितने टन का होगा पता नहीं
कितनी ऊर्जा खपत होती होगी
कितना बिल आता होगा
यूंही नहीं कर रहा काम यह अनंत से
किसी ने तो इसे बनाया होगा
बस एक ढाबे के पास रुकी
शायद उनका रोज का स्टॉप होगा यही।
76
दोपहर का भोजन करने के लिए
लोग करने लगे तैयारी
निर्मल हवा का असर था शायद
जो हलका लगने लगा मन भारी
कुछ एक को छोड़कर
सब निकल गए बाहर
कुछ खाने के लिए कुछ पीने के लिए
कुछ लघु शंका के लिए
और कुछ केबल शेल्फी के लिए
खाली- खाली देखा जब तो
वह धूमिल सफेद कालर वाला भी
उतर गया।
खाली था पेट अब तक उसका
देख भोजन मन ललचा गया
भोजन कर कुछ अच्छा लगने लगा
स्फूर्ति आ गई तन में
फिर मन हिलोरें भरने लगा
निकाल कर सेल्फी यन्त्र
वह भी दृश्य संजोने लगा।
भूखे पेट सफर ठीक नहीं
अब उसको रहस्य पता चला
थोड़ी देर भोजन कर के
सब लोग बस में आ गए
और अपने अगले लक्ष्य की ओर
फिर से चल पड़े
नदी का शोर बहुत था
साथ में बस की घीं, घें
बातें कर रहे थे लोग
पर साफ नहीं था कुछ।
77
वह धूमिल कालर वाला
किसी से मोबाईल पर बात कर रहा था
शोर गुल ज्यादा था
इसलिए स्पष्ट समझ नहीं आया
बस यह सुनाई दिया अधूरा सा
कितने बजे तक?
पांच बजे तक?
अगर लेट हो गया तो
अगर पूरे पांच बजे पहुंचा तो
अगर पांच बजे लाइन में लग गया तो
काम हो जाएगा
अगर नहीं पहुंचा तो
सफर व्यर्थ जाएगा।
अब फिर से उलझन में था
कभी साथ की सवारियों से पूछता
कभी बस कंडक्टर से
यह बस कितने बजे पहुंचाएगी
रोज कितने बजे पंहुचती है
बार बार समय देखता
गूगल पर दूरी नापता
फिर अपने अनुमान बनाता
समय पर पंहुच जाऊंगा
खुद ही खुद को समझाता
रोमांचक सा सफर यह
उसका बीत गया।
वो विशाल आंख पेंडुलम वाली
देख रही थी
वो खड़ा था लाइन में
ठीक पांच बजे
ले रहा था सेल्फी
विक्ट्री का चिन्ह बनाकर
शायद दिखा रहा था उंगली का निशान
कि किला जीत लिया था उसने
जीत ली थी जंग
हो गया था कामयाब
अपने लक्ष्य को पाने में
अब जुटा था इस कामयाबी को
सोशल मीडिया पर दिखाने में
कि देखो मैंने कर दिखाया
मैं अलग हूं भीड़ से
भीड़ में खड़ा होकर।
78
समय के दो पेंडुलम
गतिमान निरन्तर
जिनमें लटकी हैं दो आंखे बड़ी बड़ी
लोलक की जगह
कर रहे दूरी तय बराबर एक समय में
काटते हुए एक दूसरे को
कैंची की तरह
जिनकी आंखों में है अद्भुत शक्ति
देखने की
पेंडुलम की आंख अब
पहुंच चुकी है
दूसरे बिंदु पर
जहां पूरी होती है ट्राजेक्टरी
अब देख रही है
एक शमशान का दृश्य
रात इतनी अंधेरी कि
स्याही की तरह
शमशान में धधक रहे अंगारे
जली चिताओं के
एक नहीं सैंकड़ों चिताएं
जो जलाई गई थी
सूरज ढलने से पहले
हवा के झोंके से कभी कभी
जल उठती हैं अधजली लकड़ियां
और उस रौशनी में
दिखाई देते हैं
रेत पर बिखरे सैंकड़ों शव अध सडे
जिन्हे नोच रहे सियार, कुत्ते और अनपहचाने
जानवर।
79
सुलगती हुई चिताएं
पास में सभा हो रही भूतों की
कुर्सीनुमा पत्थरों पर बैठे
पत्थर जो मिलते हैं
पहाड़ी नदियों के किनारे
जो बह आए हैं दूर तक
नदी की रौद्रता का शिकार होकर
गोलाकार में बैठे भूत
गंभीर मुद्रा में
कुछ मात्र हड्डियों के कंकाल
कुछ विकृत मुख वाले
सभी गहन चिंतन में
शायद है कोई विषय गम्भीर
जिस पर चल रहा मंथन लगातार शमशान में
तभी एक पीड़ा से कराहता हुआ
भूत आया
उसकी पीड़ा इतनी कि
भूतों का भी कलेजा फटने लगे
व्याकुल भूत कर रहा क्रंदन
यह मेरी उंगली
यही वजह है मेरी पीड़ा की
यहीं से उठ रही है पीड़ा
अरे! कोई तो उपचार कराओ
यह उंगली मुझे आराम नहीं देती
मरने के बाद भी
यही उंगली वजह है मेरे मरने की
मैं इस उंगली से छुटकारा चाहता हूं
कोई तो डाक्टर को बुलाओ
इस शमशान में
क्या कोई डाक्टर नहीं
कोई हकीम नहीं
जो कर सके उपचार उंगली का।
80
अपनी उंगली की हड्डी को उठाकर
भूत ने इशारा किया
पता नहीं क्या मेरे मन में आया था
इसी उंगली पर बड़े चाव से
मैंने काला तेजाब लगवाया था
जिसकी जलन भर गई है
मेरे शरीर के अंदर
धीरे धीरे जहर बन कर फैला
पूरा शरीर काला पड़ गया
शरीर ही नहीं
सारा जीवन काला पड़ गया
रोजगार मिलता था जहां मुझको
वहां ताला लग गया।
मैं अभी इस हड्डी को
तोड़ देता हूं
इस उंगली पर रख कर छेनी
खुद हथौड़े से इसको काट देता हूं
तभी एक अन्य भूत
सफेद कपड़ों में
लकड़ी की नव निर्मित चिता पर
इस तरह प्रकट हुआ
जैसे देता है भाषण कोई निपुण नेता
खड़े होकर मंच पर
उसने पीड़ित भूत की
हर बात का बड़ी चतुराई से खंडन किया
सारा इल्जाम पीड़ा का उसी पर मढ़ दिया।
नहीं यह उंगली पर लगे तेजाब से नहीं मरा
यह मक्कार है, झूठा है
कामचोर है, समय का चोर है
इसकी पीड़ा उंगली में नहीं
इसकी पीड़ा अंगूठे में है
यह अपनी पीड़ा का
खुद जिम्मदार है
मैं अभी इसी चिता पर खड़े होकर
एस आई टी के गठन का ऐलान करता हूं
इसकी पीड़ा का मूल कारण
अब एस आई टी खोजेगी।