सुर्ख होंठो से शराब छलक रही है
तेरे होने से रात महक रही है
सोचता हूँ किस तरह व्यान करूं
मेरे होंठों पे जो बात थिरक रही है
पहाड़ों की इस बर्फीली सर्दी में
जिस्म में जैसे आग दहक रही है
झौंकें जबानी के जाग रहे है ' अक्स '
कुछ तेरी भी चाल बहक रही है
बदली से चाँद निकल रहा है ऐसे
जैसे चेहरे से नाकाव सरक रही है
........ मिलाप सिंह भरमौरी
तेरे होने से रात महक रही है
सोचता हूँ किस तरह व्यान करूं
मेरे होंठों पे जो बात थिरक रही है
पहाड़ों की इस बर्फीली सर्दी में
जिस्म में जैसे आग दहक रही है
झौंकें जबानी के जाग रहे है ' अक्स '
कुछ तेरी भी चाल बहक रही है
बदली से चाँद निकल रहा है ऐसे
जैसे चेहरे से नाकाव सरक रही है
........ मिलाप सिंह भरमौरी
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