बहती नहीं हवा जरा भी
झौंके कहीं पर छुप गए हैं
सूरज जी हैं अब आग बबूले
क्रोध से इसके यह डर गए हैं
झुला रहे हैं हाथ से पंखा
दिवारों में सब दुवक गए हैं
जमीन कर रही त्राहि - त्राहि
बडे- बडे दरख्त भी झुलस गए हैं
आसमान है साफ खाली- खाली
बादल नहीं कहीं दिख रहे हैं
प्यास के मारे यह उडते परिन्दे
धरती पर तडफ के गिर रहे हैं
विभत्स कर रहा हर दृश्य 'मिलाप'
बूढे जीव - जन्तु मर के सड रहे हैं
------ मिलाप सिंह भरमौरी
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